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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दृश्य ४ ] बलभद्रदेशका राजकुमार । १२३ I हाः ! बदला न चुकानेके विषय में मैं हर तरह से दोषी बनता हूँ । अगर मनुष्य अपना सारा समय और बुद्धि सोनेमें और खाने में ही नष्ट करे तो उसमें और पशुमें फिर भेद ही क्या रह जायगा ? परमात्माने हमें विवेक, बल और बुद्धि दी है; परन्तु याद रहे, वे दुरुपयोग करनेके लिये नहीं हैं। किसी बातपर अधिक विचार करना यह लण्ठका लक्षण है । ऐसे दीर्घ विचारोंमें एक हिस्सा बुद्धिमानीका और तीन हिस्से कायरता के होते हैं। मैं नहीं समझता कि किसी काम के लिये कारण, इच्छा, बल और साधन रहनेपर भी वह काम मुझसे नहीं हो सका, यह कहनेके लिये हम क्यों जीते हैं-मर क्यौं नहीं जाते ? ज़मीन के जरासे टुकडेके लिये प्राणों को तुच्छ समझनेवाले हजारों मनुष्यों के उदाहरण मेरे सामने मौजूद हैं तो भी मुझे लज्जा नहीं आती । देखिये, यह सुकुमार राजकुमार इतनी भारी सेना लेकर युद्ध के लिये रण-क्षेत्रमें जा रहा है । पवित्र महत्वाकांक्षासे उसका मन मजबूत हो गया है; इसीसे उसके भयङ्कर परिणामका इसे तनिक भी डर नहीं लगता; और ज़रासी जमीन के लिये धन और शरीर आदि नाशमान वस्तुओंको तुच्छ समझता है । बड़प्पनका यह लक्षण नहीं है कि जबतक सिरपर खूब जूतियाँ न पडें तबतक वह चुपचाप बैठा रहे; किन्तु जहाँ मान अपमानका प्रश्न हो वहाँ छोटी मोटी बातोंके लिये भी लड़ जाना चाहिये; इसीको बड़प्पन कहते हैं । अब ज़रा मेरी हालतको सोचिये; मेरे पिताका खून किया गया और माका सतीत्व नष्ट हुआ जिससे मेरा खून अन्दर ही अन्दर जल रहा है तो भी मुझे इसकी कुछ भी शरम नहीं । रे बेशरम डरपोक ! देख, एक बित्ताभर जमीनके लिये एक नहीं बीस हज़ार मनुष्य अपनी इज्जत आबरू के सामने प्राणोंको तुच्छ समझकर कब्र में सोने की तैय्यारी कर रहे हैं । कन क्या है मानों उनके आराम करनेका For Private And Personal Use Only
SR No.020403
Book TitleJayant Balbhadra Desh ka Rajkumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanpati Krushna Gurjar
PublisherGranth Prakashak Samiti
Publication Year1912
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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