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जयन्त
बीर० - [ भीतरसे ] जयन्त कुमार !
विशा० - - ( भीतरसे ) परमात्मा उनकी रक्षा करे ।
[ अंक १
जयन्त तथास्तु |
विशा० - ( भीतर से ) हो, हो, महाराज !
जयन्त - हो, हो, लो, लड़को ! आओ, पक्षियो, आओ, आओ । [ विशालाक्ष और वीरसेन प्रवेश करते है । ]
वीर०. ० महाराज, सब कुशल तो है न ? विशा - क्या समाचार है, महाराज ! जयन्त-— बड़ा अद्भुत समाचार है ! विशा०- -क्या हम लोग भी उसे सुन सकते हैं ! जयन्त - नहीं, तुम लोग उसे फैला दोगे । विशा० – परमेश्वरकी सौगन्द, मैं किसीसे नहीं कहूँगा ।
वीर०- मैं भी नहीं कहूँगा, महाराज ।
जयन्त - तो क्या कही डालूँ ? अजी, यह बात तो कभी किसीने बिचारी भी न थी । पर तुम लोग इसे गुप्त तो रक्खोगे न ? विशा०, वीर० - हाँ हाँ, महाराज, परमेश्वरकी सौमन्द, हमलोग किसीसे नहीं कहेंगे ।
-
जयन्त – मेरे चाचा के समान नीच मनुष्य सारे देशमें न होगा । विशा० - महाराज, यह बात कहने को कनसे प्रेतके निकल आनेकी कोई आवश्यकता नहीं थी ।
जयन्त - हाँ, ठीक है । तुम्हारा कहना बहुत ठीक है | बस तो अब हाथ मिला लो, जाता हूँ । अधिक बोलने की आश्वयकता ही नहीं रही । तुम लोग जिधर चीहो उधर जाकर अपना २ काम करो,
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