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दृश्य २] बलभद्रदेशका राजकुमार ।
राजा-तुम्हारा मुख अबतक मलीन क्यों है ? जयन्त-नहीं, महाराज । मैं तो बड़े आनन्दमें हूं।।
रानी-प्यारे जयन्त, अब दुःख करना छोड़ दो और बलभद्रकी ओर मित्रताकी दृष्टिसे देखो । ऐसा दुःख करनेसे क्या तुम्हारे पिता स्वर्गसे लौट सकते हैं ? क्या तुम्हारा अश्रुप्रवाह उन्हें फिर नीवित कर सकता है ? कभी नहीं । मृत्यु तो हर एकके पीछे लगी रहती है । जहां जन्म है वहीं मृत्यु है । यह जन्म-मृत्युका चरखा बराबर चलता ही रहता है।
जयन्त-सच है, माता जी, आपका कहना बहुत सच है । रानी-अगर सच है तो तुम ऐसे उदास क्यों देख पड़ते हो ?
जयन्त-हा, देख तो पड़ता हूं । पर इसका कारण क्या है ? सचमुच मैं उदास हूँ। मा, जहाँ अपना कोई सम्बन्धी मरा तहाँ उसका सूतक मानना, पगड़ी न पहिनना, मुँहपर चादर लपेट लम्बी २ बाँसें लेना, आँखोंसे आँसू बहाना, पुरानी बातें याद करके रोना, मृत मनुष्यके गुण बखानना, अर्थात् अंगव्यापार, शब्द और मुद्रा, इन तीनोंसे जहांतक हो सके बहुत दुःखी होनेका स्वांग लेना तो इस संसारकी रीति ही है । पर मुझमें इन सब बनावटी बातोंका लेश भी नहीं है। इसलिये मेरे दुःखकी ठीक ठीक कल्पना कैसे हो सकती है ? मनमें खेदका लेश न रहते मनुष्य ऐसे स्वांग ले सकता है ; परन्तु मेरे हृदयमें जो खलबली मची हुई है वह स्वयके परे है । इसलिये उसकी दूसरोंसे कल्पना होना सर्वथा असम्भव है ।
राजा-जयन्त, पिताके लिये तुम्हें दुःख होना तुम्हारे कोमलहृदयके लिये बहुत स्वाभाविक और योग्य है । परन्तु विचार करो, के.
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