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जयन्त
[अंक १ . धूर्जटि-अरे ! अबतक तुम यहीं खड़े हो ! तुम्हें क्या कहा जाय ? जाओ, जाओ जल्दी ! ऐसी अच्छी साइत छोड़ तुम यहाँ समय बिता रहे हो ; और वहाँ लोग तुम्हारी राह देख रहे हैं ! जाओ, तुम्हारा मङ्गल होगा । परन्तु मेरी इन दो बातोंका स्मरण रक्खोः -अपने विचार हर किसीसे मत कहो, और बिना विचारे कोई काम न करो । मेलजोल सबसे रक्खो, पर किसीको मुँह न लगाओ । जो तुम्हारे सच्चे मित्र हैं, और जिनकी मित्रताकी परीक्षा तुम कर चुके हो, उनके लिये समयपर जान देनेको भी तैयार रहो; पर साहब सलामत होते ही चाहे जिस नवीन मनुष्यको मित्र मानकर उसे दावतपर दावत मत देने लगो । पहिले तो किसीके झगड़ेमें ही न पड़ो, और यदि पड़ो तो शत्रुके दाँत खट्टे किये बिना न छोड़ो, जिसमें फिर कभी वह तुम्हारा सामना करनेका साहस न करे । बातें सबकी सुनो, पर अपनी बात इनगिने लोगोंसे कहो । सबकी राय सुनलो, पर किसी बातका एकाएक निश्चय न कर डालो । आय देखकर व्यय करो । पोशाक मूल्यवान् हो, पर भड़कीली न हो; क्योंकि पोशाकसे ही प्रायः मनुष्यकी चालचलनका पता लगता है । किसीसे कर्ज न लो, और न किसीको दो; क्योंकि कर्ज देनेका प्रायः यही नतीजा होता है कि, धनके साथ मित्रतासे भी हाथ धोना पड़ता है ; और कर्ज लेनेसे कमखर्चीका अभ्यास छूट जाता है । सौ बातकी एक बात यह है कि सदा सच्ची सीधी राहपर चलो ; इससे तुम्हारे हाथों किसीकी बुराई न होगी। जाओ, मेरे आशीर्वाद तुम्हारा कल्याण होगा।
चन्द्र०-अच्छा, आज्ञा चाहता हूँ। (प्रणाम करता है।) धूर्ज-जाओ, इस समय अमृतसिद्धियोग है । बाहर नौकर
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