________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
जयन्त
[अंक ३ उस सुख या दुःखकी याद उसके हृदयमें बनी रहती है । जहाँ सुख है वहाँ दुःख भी है; निमित्तमात्रसे सुख दुःखमें बदल जाता है, और दुःख सुखमें । जीवमात्र ही क्या !-यह जोवलोक भी अनन्त नहीं है, फिर भला प्रेम किस खेतकी मूली है जो भाग्यचक्रके साथसाथ भ्रमण न करे ! अस्तु, इस बातकी व्याख्या करना रह हो गया कि प्रेम धनको खींचता है या धन प्रेमको । धनवान् मनुष्य जब निधन हो जाता है तब उसके सारे मित्र उसे छोड़कर भाग जाते हैं; और यदि निर्धन मनुष्य धनवान् हो जाता है तो उसके पुराने शत्रु भी फिर मित्र बन जाते हैं। प्राय: यही बात देखी जाती है कि प्रेम धनके ही आश्रयमें अधिक रहता है; क्योंकि जिसे किसी बातकी कमी नहीं उसे फिर प्रेमकी ही कमी क्यों रहे ? मनुष्य अपने विपद्कालमें अगर किसीसे मित्रता करने जाय तो ऐसे समय उसका कोई भी मित्र न होगा; शत्रुओंको संख्या बढ़ जायगी । परन्तु, हा, मैंने असल बात तो छोड़ हो दी और व्यर्थ इधर उधरको बकवाद कर रहा हूँ । अस्तु, अब आरम्भ की हुई बात एकबार समाप्त कर देनी चाहिये । प्रिये ! मनुष्यकी इच्छा और भाग्यमें बड़ा विरोध रहता है;वह सोचता कुछ है तो होता है कुछ और ही । तात्पर्य, सोचना अपने हाथ है, पर वैसा कराना ईश्वरके हाथ है । तुम आज यह सोच रही हो और कह भी रही हो कि में दूसरा विवाह न करूँगी; पर याद रखना, मेरे शरीरके साथ साथ तुम्हारे ये विचार भी नष्ट हो जायँगे।
ना० रानी-अगर में दूसरी शादी करूँ तो मुझे अन्न न मिले-भूखों मरना पड़े ! मेरा बदन सड़ जाय-गल जाय; और
For Private And Personal Use Only