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जयन्त
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[ अंक ५
चन्द्र०—यह बात ? अच्छा, आओ । ( खेलते हैं ) हारीत - किसी ओरसे कुछ भी नहीं ।
चन्द्र० - अच्छा, यह लो । (चन्द्रसेन जयन्तो जखम करता है । फिर वे एक दूसरेसे लिपट कर तलवारें बदलते हैं । जयन्त उसको ज़ख़म करता है | )
रा०—उन्हें छुड़ाओ ।
जयन्त--नहीं, फिर आओ। ( रानी ज़मीनपर गिरपड़ती है ) हारीत -- देखिये, वहाँ रानीसाहबकी क्या हालत है ! विशा०—दोनों खूनसे तर हो गये ! महाराज, खैरियत तो है ? हारीत - चन्द्रसेन, कैसी तबियत है ?
चन्द्र०—अब क्या पूछते हो ? मेरी चालाकी मेरे ही गले पड़ी ! हारीत ! मेरी दगाबाजीका फल यह हुआ कि मैं अपनी ही जान खो बैठा ! जयन्त - - रानीकी क्या हालत है ?
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रा० – तुम लोगों के शरीरसे खून निकला हुआ देख उसे मूर्छा आ गई है ।
रानी नहीं नहीं, शर्बत, शर्बत, मेरे प्यारे जयन्त- शर्बत, जहर, मुझे ज़हर पिला दिया । ( मरती है )
जयन्त - रे नीचाधम ! आह ! दरवाज़े में ताला चढ़ा दो ।
दगा ! दगा ! ! कहाँ है, उसे ढूंढो ।
चन्द्र० -- यहाँ, यहाँ है । जयन्त ! तुम मरे समान हो; संसारकी कोई औषधि तुम्हें आराम नहीं कर सकती; अब तुम आध घण्टेसे अधिक नहीं जी सकते; तुम्हारे हाथमें जो शस्त्र है वह नकली नहींअसली है, और उसमें ज़हर भी लगा हुआ है । मेरी नीचता मेंर ही
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