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दृश्य २ ]
बलभद्रदेशका राजकुमार ।
१६७
पागलपन जयन्तका शत्रु हुआ । अच्छा, मित्र, ( लोगों की ओर इशारा करके ) आप लोगोंके सामने मैं इस बातको स्वीकार करता हूँ कि मुझसे जो कुछ अपराध हो गया वह अनजान में अपने सगे भाईपर गोली चलाकर उसे घायल करनेके बराबर है —— मैंने जान बूझ कर तुम्हारा अपमान नहीं किया । अब तो मुझे क्षमा करोगे ?
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चन्द्र० -- तुम्हारी करतूत तो ऐसी थी कि जो तुमसे बदला चुकानेमें मुझे और भी बढ़ावा दे, पर तुम्हारी बातों से मुझे बहुत संतोष हुआ है। पर मैं अपनी मान मर्यादा का विचार नहीं छोड़ सकता । उसमें मैं तुम्हारा मुलाहजा नहीं कर सकता। इसलिये जबतक कुछ वृद्ध और भद्र पुरुष मुझसे न कहेंगे कि ' खून बहाकर अपने नाममें धब्बा न लगाओ–आपसमें मेल करलो ' तबतक मेरे और तुम्हारे बीच मित्रता नहीं हो सकती । परन्तु इस बीच तुम्हारे बातूनी प्रेमको मैं प्रेम ही मानकर तुमसे बर्ताव करूँगा; इसमें फ़रक न होगा ।
जयन्त – यह बात मुझे सहर्ष स्वीकार है । अच्छा, आओ, हम लोग सगे भाई के समान मनमें बिना छल कपट रक्खे दिल खोलकर पटा खेलें । लाओ, हथियार लाओ, ( चन्द्रसेन से ) चलो, आओ ! चन्द्रसेन -- एक चमचमाती तलवार मुझे भी दो ।
अयन्त - चन्द्रसेन ! तुम चमचमाती तलवार लेकर क्या करोगे ? जिस तरह अंधेरी रातमें तारे चमकने लगते हैं उसी तरह मेरी मूर्खता - के सामने तुम्हारा कौशल चमकने लगेगा ।
चन्द्र० -- मेरी दिल्लगी करते हो ?
जयन्त—नहीं, इस तलवारकी सौगन्द, मैं दिल्लगी नहीं करता । राजा - अच्छा, हारीत ! उन्हें हथियार दे दो । जयन्त ! तुम जानते हो, शर्त क्या है ?
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