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जयन्त
[ अंक ५
जयन्त– अच्छा, अब इससे कुछ बोलना चाहिये । ( मजदूर से)
क्यों जी, यह किसकी कब्र है ?
प० मज०-- — मेरी है, सरकार ।
( गाता है ) यह फावड़ा फरसा कफ़न वो कब सब सामान है । उसका जो दुनियाँ में इसी मिट्टीका एक मेहमान है ॥ जयन्त -- मालूम तो तुम्हारी ही होती है; क्योंकि तुम उसमें लड़े हो ।
प० म० - आप इसके बाहर खड़े हैं, इसलिये वह आपकी नहीं है । और मेरे विषयमें पूछिये तो मैं इसमें नहीं रहता तो भी यह मेरी ही है । जयन्त -- यह तुम्हारी नहीं है; तुम झूठ बोलते हो | यह जिन्दोंके लिये नहीं, मुर्दों के लिये है; इसलिये तुम्हारी बात सच नहीं, झूठ है । प० म० - झूठ बड़ा चंचल है, जनाब ! देखिये, मुझे छोड़कर कहीं आपको न पकड़ ले
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जयन्त - अच्छा, यह तो बताओ, किस आदमी के लिये इसे खोद रहे हो ?
प०म० - किसी आदमीके लिये नहीं । जयन्त--फिर किसी औरत के लिये
प० म० नहीं औरत के लिये भी नहीं । जयन्त — मैं यह पूछता हूँ इसमें कौन गड़ेगा ?
प०म० - एक लाश गड़ंगी, सरकार ! किसी समय वह औरत थी, पर ईश्वर उसकी आत्माको शान्ति दे | अब वह मर गई है ।
जयन्त - सुनते हो न ? यह बदमाश कैसा कानूनिया है ! इससे ठीक ठीक बातें करनी चाहिये; नहीं तो अपनी उस्तादी अपने ही गले
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