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[अंक४ - भव्पुक-महाराज ! बचिये, बचिये। क्षुब्ध सागर जिस वेगसे नगरके नगर निगल जाता है उसी वेगसे चन्द्रसेन लुच्चे और बदमाशोंकी सहायतासे आपके अधिकारियोंको बेदम कस्ता हुआ इधर ही आ रहा है ! राजविद्रोही उसीको अपना स्वामी कहकर पुकारते हैं । जिधर देखिये उधर ही अन्धाधुन्द कारवाई दिखाई देती है। क्या छोटा क्या बड़ा, उनकी दृष्टिमें सब समान हो गये हैं । दहशत, सभ्यता और रीति रिवाजोंका मानों उन्हें अबतक गन्ध भी नहीं हुआ है। जान पड़ता है कि समस्त संसार अभी बाल्यावस्थामें ही है । शहरके सारे बदमाश हाथ उठा उठाकर यही चिल्ला रहे हैं कि बस, चन्द्रसेन ही राजा हो-हम उसीको अपना राजा बनायेंगे । इनके ऐसे शोरसे सारा आकाश गूंज उठा है !
रानी-वाह ! क्या बात है ! बलभद्रके कुत्तो ! बिना शिकार पहिचाने ही इतने बँक रहे हो ?
रा०--शायद फाटक भी तोड़ा गया ! (भीतर शोर होता है।)
( चन्द्रसेन हथियारोंके साथ प्रवेश करता है; पीछे पीछे बलभद्रके निवासी आते हैं।)
चन्द्रसेन--कहां है राजा ? महाशयो; आप बाहर ही रहें । ब०निवासी नहीं नहीं, हमें भी भीतर आनेकी आज्ञा दीजिये । चन्द्र०-कृपा करके मुझ अकेलेको ही भीतर रहने दीजिये । ब०नि०-बहुत अच्छा, बहुत अच्छा । ( बाहर खड़े रहते हैं)
चन्द्र०-इसके लिये मैं आप लोगोंको धन्यवाद देता हूँ, पर फाटकपर खूब कड़ा पहरा रहे । रे नीच राजा ! बोल, मेरे पिता कहाँ हैं ?
रानी०-चन्द्रसेन ! शान्त हो, शान्त हो ।
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