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जयन्त
[ अंक ४
चन्द्र० शत्रु छोड़ दूसरेका बाल भी बाँका न होने पावेगा । रा० - फिर क्या तुम जाना चाहते हो कि शत्रु कौन है ? चन्द्र०—उनके मित्रोंको, देखिये, इसतरह गले लगाऊँगा; और काम पड़नेपर उनके लिये अपना खून भी बहा दूँगा ।
रा०-सचमुच, अब तुम सुपुत्र और भले आदमीकी तरह बात कर रहे हो । तुम्हारे पिताकी मृत्युमें मेरा बिल्कुल दोष नहीं; किन्तु इसके लिये मुझे बहुत ही दुःख हो रहा है। इस बातकी सत्यता तुमपर आप ही आप बहुत जल्द प्रगट हो जायगी ।
ब० नि०- ( भीतर से ) आने दो, उसे भीतर आनेदो । चन्द्र० - ऐं ? कैसा शोर मचा है ? ( कमला प्रवेश करती है 1) हे अग्निदेवता ! मेरे मस्तिष्कको जलाकर खाक कर डाल | आँसुओ ! सतगुना खारे होकर मुझे अन्धा बना दो ! बहिन ! परमेश्वर साक्षी है, तुम्हारे पागलपनका बदला चुकाने में मैं रत्तीभर भी कसर न करूँगा । कोमल कुसुम ! सुकुमार कुमारी ! प्यारी बहिन ! कमला ! हा: ! हे ईश्वर ! क्या बुढे मनुष्य के जीवनकी तरह तरुण बालिकाकी बुद्धि भी क्षणभंगुर होती है ? पर प्रेमकी बड़ी विचित्र लीला है । वह मनुष्य के स्वभाव और विचार-आचार को भी बदल देता है । प्रेमी अपने प्रेम-पात्र या भक्तिभाजनके लिये चाहे जो करनेको तैय्यार रहता है; पर जब वह प्रेमका विषय प्रेमीको छोड़ जाता है तो प्रेमी प्रेमके पीछे अपने प्राण तक त्याग देता है । वह पागल हो जाता है - संसार से उसका चित्त हट जाता है ।
कमला - ( गाती है | )
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चादर भी थी नहीं लाशपर खुला जनाजा था हा हा ! मातम करता था बादल आँसू बरसाता था आ हा ॥
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