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बलभद्रदेशका राजकुमार ।
दृश्य ७.]
वही तो उसालका नगीना है !
कहता था कि
रा०-- वह तुम्हारी बहुत प्रशंसा करता था; और तुम पटा खेलने में और दूसरों के वारसे बचने में बड़े उस्ताद हो । खासकर तलवारका वार करना तो तुम्हें खूब ही सधा है । इस काम में अगर कोई तुम्हारा सामना करने वाला हो तो सचमुच एक विचित्र दृश्य दिखाई देगा । और यह भी कहता था कि वहाँके पटेबाज तुम्हारे सामने खाली कठपुतला की तरह खड़े हो जाते हैं जब तुम उनपर वार करने लगते है। । उसके मुँह तुम्हारी प्रशंसा सुनकर जयन्तको इतना बुरा लगा है और तुम्हार विषयमें उसके मनमें इतना डाह उत्पन्न हुआ है कि सिवा तुमसे पटा खेलने की बातके और कोई बात ही उसे नहीं सूझती । उसे ऐसा हो गया है कि तुम कब आओगे और उसे ऐसा अवसर कब मिलेगा । बस, अब इसी बातसे---
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चन्द्र० - इसी बातसे क्या ? महाराज ?
रा०.
या झूठमूठ ही दुःख कर रहे हो ?
- चन्द्रसेन ! अपने पिताकों क्या तुम सचमुच प्यार करते थे;
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चन्द्र ०- - आप कैसी बातें करते हैं ?
रा०- - मेरा यह मतलब नहीं है कि उनपर तुम्हारा प्रेम ही नहीं था; किन्तु मुझे इस बातका अनुभव है कि प्रेम धीरे धीरे बढ़ता है और उसी तरह धीरे धीरे घट भी जाता है । जैसे दीपकका फूल दीपक के प्रकाशको कम कर देता है वैसे प्रेममें भी किसी समय कोई ऐसी बाधा पड़ जाती है जिससे उसकी मात्रा कम हो जाती है । और यह सही भी है कि किसी चीज़का अच्छापन हर समय एक ही सा नहीं बना रहता । अच्छेपनकी सीमा हो जानेपर उसका नाश हो जाता है । कहते
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