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जयन्त-
[ अंक ४
सोची है, कि जिसमें वह तुम्हारे ही हाथों मरे । सुनो, जबसे तुम विदेश गये तबखे तुम्हारे एक गुणकी लोग यहाँ बड़ी प्रशंसा करते हैं । और वह प्रशंसा भी जयन्तके सामने होती है । तुम्हारे और और गुणों की अपेक्षा उसी एक गुणके विषयमें उसे इतना डाह हैं. जो मेरी समझ में बहुत ही निन्दनीय है ।
चन्द्र० - मुझमें ऐसा कौनसा गुण है, महाराज ?
।
रा०—- अहा हा ! वह तो तारुण्यमुकुटकी शोभा बढ़ानेवाला सुर्खाबका पर है ! और वह आवश्यक भी है। उससे युवाओंकी वैसी ही शोभा बढ़ती है जैसे सादी रहन - सहनसे वृद्ध भले मालूम होते हैं । दो महीने हुए, उत्तालसे एक वीर पुरुष यहाँ आया था बहुतेरे उत्तालके वीर पुरुषोंको मैं देख चुका हूँ, और उनसे लड़ भी चुका हूँ; और यह भी जानता हूँ कि वे घोड़े की सवारी बहुत अच्छी करते हैं । पर वह वीर पुरुष घोड़े की सवारी क्या करता मान जादूका खेल करता था । जब वह घोड़े पर सवार होता तब उसका घोड़ा ऐसा अद्भुत काम दिखलाता था कि देखनेवाले दंग हो जाते और यह समझते थे कि ब्रह्मान इस घोड़ेको सवार सहित ही निर्माण किया है । उसने घोड़ेके ऐसे ऐसे अद्भुत काम कर दिखाये जिनकी मैं कभी कल्पना भी नहीं कर सका ; फिर वैसा करना तो बहुत दूर रहा ।
चन्द्र०क्या वह उत्ताली था ?
रा०-हाँ, उत्तालका ही रहने वाला था ।
चन्द्र · चन्द्रगुप्त तो नहीं ?
रा०-हाँ, हाँ, वही ।
चन्द्र०—- उसे मैं अच्छी तरह जानता हूँ । उसकी क्या बात है !
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