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दृश्य ४] बलभद्रदेशका राजकुमार। ११३
रानी--जयन्त ! मुझपर विश्वास रख । जो कुछ तूने मुझसे कहा है उसमेंका एक शब्द भी मैं मुंहसे न निकालूंगी।
जयन्त-मुझे श्वेतद्वीप भेजनेका मनसूबा हुआ है । जानती हो ?
रानी-हां हां, मैं बिलकुल भूल गयी थी। यह निश्चय हो चुका था।
जयन्तश्वेतद्वीपके महाराजको भेजनेके लिये खरीता लिख गया है-उसपर मुहर भी लग चुकी है । और मेरे साथ मेरे बचपनके दो मित्र नय और विनय जायँगे । मैं जितना विश्वास जहरीले सांपपर करता हूं उतना ही इनपर करता हूं। मैं क्या करूं ? ये जैसी चाल चलेंगे वैसी मुझे भी चलनी पड़ेगी। कोई परवाह नहीं । वे अपनी कुल्हाड़ी आप अपने पैरोंपर मार लेंगे-उन्हींकी फजीहत होगी । बड़ा अच्छा तमाशा होगा । बात बढ़ गयी है-बढ़ने दीजिये; मैं जरा और बढ़ कर खबर लूंगा । एक पत्थरसे दो चिड़ियोंको गिराना भी हुनर है । (धूर्जटि) यह बुढा मुझ ही को निगल जाना चाहता था । अब इसकी ठठरीकी गठरी उस कमरेमें जा गाड़ दूं। अच्छा तो, माताजी, मैं आपसे विदा होता हूं। यह बुढ्ढा जब जीता था तो इसकी जबान बेलगाम हो गयी थी। अब यह कैसा शान्त और गंभीर बन गया है ! चलिये, महाशय, अब आपकी आखिरी खातिर कर दूं । माताजी, जाता हूं।
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