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१२० जयन्त
[अंक ४ अनुकूल है; और तुम्हारे साथ जानेवाले साथी भी सज्ज होकर बैठे हैं; तात्पर्य, इस समय सारा सरंजाम ठीक है । जाओ, अब देर न करो ।
जयन्त-कहां ? श्वेतद्वीप ? रा०--हाँ। जयन्त-अच्छी बात है।
रा०--हमारे उद्देश्यको सोचोगे तो जरूर कहोगे कि इसके सिवा और कोई अच्छी तदबीर ही नहीं है।
जयन्त-आपका उद्देश्य समझनेकी शक्ति परमात्माके सिवा और किसमें हो सकती है ? खैर, श्वेतद्वीप न ? अच्छा, जाता हूं , मा !
रा० मा नहीं, पिता।
जयन्त-मा ! पिता और माता अर्थात् पति और पत्नी । पत्नी पतिकी अर्धाङ्गिनी कहलाती है । इसलिये कहता हूं, मा ! आशा दो, जाता हूं। ( जाता है।)
रा०-(नय और विनयसे ) जाओ, उसके साथ साथ जाओ। देर न करो ; जहाँतक हो जल्द उसे जहाज़पर बैठा दो। मैं चाहता हूं, वह आज रातको ही यहाँसे रवाना हो जाय । इस विषयमें जो कुछ व्यवस्था करनी थी सब हो चुकी है । जाओ, अब देर न करो।
(नय और विनय जाते हैं) हे शेवतद्वीपाधीश ! बलभद्रकी शक्ति और वीरताका तुम्हें भली भांति परिचय है। दहशतसे तुमने इसकी अधीनता स्वीकार कर ली है। ऐसी अवस्थामें इसकी मित्रताका अनादर करते हुए तुम्हें मेरी आशा भजन करनी चाहिये। मैंने खरीतेमें लिख भेजा है कि जयन्तको फौरन् मार डालना । हे राजन् ! इस काममें जरा भी सुस्ती न हो । इसके
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