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जयन्त
[ अंक-३ रानी-तेरा यह क्या हाल है ? क्या बात है ? किससे बात करता है ? हवासे ? ऐसी आंखें फाड़कर क्यों देखता है ? और ऐसा काँप क्यों रहा है ? बदनपर यो रोगटे क्यों खड़े हुए । प्यारे जयन्त ; घबरा मत ; धीरज मत छोड़ ; मन ठिकाने ला; सोच ! अरे क्या देखता है ?
जयन्त-उसे, उसे ! देख, देख, उसका चेहरा कितना फीका पड़ गया है ! उसके दुःखके कारण और उसका चेहरा देखकर पत्थर भी पिघल जायगा । मेरी तरफ मत देख ; क्योंकि तेरा दीन चेहरा देखकर मेरा निश्चय आगे नहीं बढ़ता । मुझे जो काम करना है वह डरकर न होगा; उसके लिए कसाईकी निठुरता चाहिये । आंसू नहीं-खून बहाना है।
रानी-यह सब किससे कह रहे हो ? । जयन्त-क्या वहां तू कुछ भी नहीं देखती !
रानी-नहीं, कुछ नहीं । जो है उसे देखती हूँ ; नहींको कैंस देखें ?
जयन्त-तूने कुछ सुना भी नहीं ! रानी-अपनी बातोंको छोड़ और कुछ नहीं ।
जयन्त-क्या ? कुछ नहीं देखा ? देख देख, यह देख ! कैस धीरे धीरे जा रहा है ! मेरे पिता, जीते हुए जैसी पोशाक पहिनते थे उसो पोशाकमें आये हैं । क्या तूने नहीं देखा ? देख देख, उन्होंने दरवाजेके बाहर कदम रखा। (भूत जाता है । ) ।
रानी-यह सारा तेरा भ्रम है। भ्रमसे न जाने क्या क्या बाते दिखलाई देती हैं।
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