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'जयन्तः --
[ अंक ३ जयन्त-आइये, यहाँ आइये । जरा बैठ जाइये । आप जाती कहां हैं ? जबतक आपकी हृदय खोलकर आपको न दिखला दूँ तबतक आप यहांसे कहीं नहीं जा सकती ?
रानी--( डरके साथ ) ऐं ? तू करेगा क्या ? क्या मेरा खून करेगा ? दौड़ो, दौड़ो; बचाओ, बचाओ !
धू-( भीतरसे ) क्या ? दौड़ो, दौड़ो; बचाओ, बचाओ !
जयन्त-( तलवार खींचकर ) कौन ! चूहा ? ( परदेमें तलवार घुसाकर ) ले, मर, पेटके लिये मर ।
धू०-( भीतरसे ) हाय ! मरा ! खून ! (गिरकर मरता है।) रानी-हाय हाय ! यह तूने क्या किया ?
जयन्त-मैं नहीं जानता, मैंने क्या किया ? क्या चचाजी तो नहीं थे ? 'रानी-हाय हाय ! तूने कैसा नीच और घोर काम किया ?
जयन्त-क्या ? नीच और घोर काम ! मा! अपने पतिका खन करके उसके सगे भाइसे शादी करनेके बराबर नांच और घोर ?
रानी--क्या ? पतिका रवून करके !
जयन्त-जी हाँ ! मेरे वेही शब्द थे । ( परदा उटाकर धूर्जटिको लाशको खींच लाता है । ) अभागे, उतावले, और हरकाममें हाथ डालने वाले पाजो मूर्ख ! ले, अब तुझे अन्तिम राम राम करता हूँ। मैं तुझे भला आदमी समझता था। रो अब अपने भाग्यपर ! अब तो तू जान गया होगा कि दूसरों के काममें दस्तंन्दाजी करनेका कैसा नतीजा होता है। (रानीसे ) क्यों फ़जूल रोती हो ? चुप रहो, शान्त हो ! आओ, यहाँ बैठो और तुम्हारी भलाई के लिये जो बात कहूँ,
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