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जयन्त
[ अंक ३
- साठ बार प्रकाशित किया; पर हम दोनोंके अन्तःकरणमें परस्पर एक दूसरे के विषय में वास करनेवाला प्रेम अपने स्थान से तनिक भी इधर
उधर न हटा
ना० रानी - हे भगवती देवी ! जिस तरह हम दोनोंका प्रेम-सम्बन्ध आज तीस वर्ष बराबर निभ गया, उसी तरह वह और भी तीस बर्ष निभ जाय ! हाय ! प्राणनाथ ! इन दिनों आपकी तबियत इतनी खराब हो गई है कि अब आपके अधिक दिन जीनेकी मुझे बिल्कुल आशा नहीं । और जब यह बात मैं सोचती हूँ तब डर से एकदम कलेजा काँप उठता है। पर, नाथ ! मेरे डरका आप बिल्कुल ख्याल न करें; क्योंकि स्त्रियों के डर और प्रेमकी सीमा नहीं होती; कभी बहुत अधिक और कभी बहुत ही कम हो जाते हैं । आप - पर मेरा कितना प्रेम है, इसका तो आपको अच्छी तरह परिचय होहीगा । जहाँ प्रेम अधिक वहाँ डर भी अधिक; यह तो स्वाभाविक बात है । फिर भला आपकी ऐसी दशा देख मेरे मन में डर क्यों न पैदा हो ?
ना० रा० - प्राणप्रिये ! सच कहता हूँ कि अब मुझे तुमको और तुम्हारे प्रेमको बहुत जल्द छोड़कर इस जीवलोकसे कूच करना होगा । क्योंकि मेरा शरीर अब बहुत ही अशक्त हो गया है । परमात्मा से मैं यही प्रार्थना करता हूँ कि वह मेरे पीछे तुम्हें सुखी रखे। और एक बात तुमसे भी कह रखता हूँ कि मेरे मरने के बाद किसी दयालु पुरुषको अपना पति ......
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ना० रानी - बस, बस, बस अब आगे कुछ न कहिये । महाराज ! जिसके मनमें कुछ छल कपट होगा वही निगोड़ी ऐप
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