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१०२ जयन्त
[अंक ३ गयो ! हाय, हाय ! मैंने भाईका खून किया ; जो सारे धर्मशास्त्रों में महापाप माना जाता है ! मैं ईश्वरकी प्रार्थना करना चाहता हूँ ; पर कर कैसे सकता हूँ ? क्योंकि मेरे घोर पापोंके सामने मेरी सद्इच्छाएँ. दब जाती हैं । और मेरी उस मनुष्यकीसी दशा हो जाती है जिसके सामने दो काम हों, और उन दो कामोंमें कौनसा पहिले कर ; इसी बातका विचार करने में सारा समय नष्ट होकर उसके हाथों उनमेंसे एक भी नहीं बन पड़ता । भाईका खून करनेसे मेरा हाथ अपवित्र हो गया है ; पर क्या यह उस दयामय परमात्माके कारुण्योदकसे धुलकर स्वच्छ और पवित्र नहीं हो सकता ? दया, अपराधोंकी क्षमा करने के सिवा और किस कामकी है ? और ईश्वर-स्तुतिमें भी तो यही गुण है कि पहिले पापोस बचाना और पाप करनेपर उसे क्षमा कर देना । बस, अब मैं ईश्वरको प्रार्थना करता हूँ , जिससे मेरा घोर पाप जलकर अभी भस्म हो जाय । पर, हाँ, क्या कहकर प्रार्थना करूँ ? हे ईश्वर मेरे किये खूनके लिये मुझे क्षमा कर ! ऐसा कहूँ ? नहीं नहीं, ऐसा कहना ठीक न होगा । क्योंकि मुकुट, विभव और स्त्री आदि जिन वस्तुओंके लिये मैंने खून किया था वे सब वस्तुएं तो अबतक मेरे पास मौजूद हैं । तो क्या ऐसे निडर और उन्मत्त खूनीके खूनकी क्षमा हो सकती है ? नहीं, कभी नहीं । पृथ्वीके घूसखोर न्यायकर्ता ऐसों को भले ही क्षमा कर दें; पर उस न्यायप्रिय परमात्माके दारमें ऐसा अन्याय कभी नहीं हो सकता । यहाँ-इस लोकमें यह वात प्रायः देखनेमें आती है कि अपराधी लोग घूसखोर न्यायकर्ताओंको अन्यायसे बटोरा हुआ धन देकर उनसे अपने अनुकूल न्याय कग लेते हैं; पर वहाँ-स्वर्गमें यह बात कैसे होसकती है ? वहाँ तो अपराधोंका सच्चा रूप प्रकट हो जाता है, और अपराधोंकी मचाई सिद्ध
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