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अयन्त
[ अंक ३ भाषणके चिथरे चिथरे उड़ जाते हैं; और आस पास बैठे हुए प्रेक्षकोंके कान फटने लगते हैं । इससे नतीजा यही होता है कि लोगोंपर नाटकका अच्छा असर पड़ना - तो दूर रहा-वे उसे भांडोंका तमाशा समझने लगते हैं । ऐसे समय इच्छा यही होती है कि ऐसे गदहोंके चूतरपर खूब कोड़े लगाऊँ । इसीलिये तुमसे कहता हूँ कि बोलते समय इन सब बातोपर खूब ध्यान रखना। - प० नट-महाराज ! विश्वास राखये ; मैं फ़जूल बातें और फ़जूल अभिनय कभी नहीं करूंगा।
जयन्तकर्कश स्वरसे चिल्लानेको मना कर दिया, इसलिये कहीं मन ही मन न भुनभुनाना। कुछ अपनी बुद्धिसे भी काम लेना सीखो ; सिखाने पढ़ानेसे कहांतक काम चलेगा। भाषण और अभिनय दोनों साथ ही साथ और एक दूसरेसे मिलते जुलते होने चाहिये । याद रक्खो फ़जूल बकवाद और अधिक हाथ पैर हिलानेसे उनकी स्वाभाविकता जाती रहती है । नाटक मनुष्य स्वभावका प्रतिरूप है; इस लिये उसमें मनुष्य-स्वभावके विपरीत ज़रासी बात होजानेसे उसका भङ्ग हो जाता है । सुशीलता दिखानेकी मुद्रा अलग होती है, और तिरस्कार दिखानेकी मुद्रा कुछ और ही; तात्पर्य, जहां जैसा रस दिखाना हो वहां वैसाही अभिनय करना चाहिये । इसमें अगर ज़रा भी गड़बड़ हुई तो मूर्ख प्रेक्षक हँसने लगते हैं, पर इसके जानकार लागोंको बहुत दुःख होता है । सारे प्रेक्षकोंमेंसे अगर एक भी प्रेक्षक तुम्हारे भाषण और अभिनयपर नाक चढ़ावेगा तो समझ लो, कि तुम्हारे सारे किये कराये परिश्रमपर पानी फिर जायगा । मैं कई एक नाटक कंपनियोंके ऐसे नाटक देख चुका हूँ जिनकी लोग बहुत
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