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जयन्त
[अंक १ मैंने किसीके मुँह इस प्रथाकी कभी प्रशंसा नहीं सुनी; किन्तु मेरे ख्यालसे लोग इसे घृणाकी ही दृष्टिसे अधिक देखा करते हैं । इस शराबखोरीसे-और तो कुछ नहीं-चारों ओर हमारी बदनामी हो रही है। सब लोग हमें शराबी कहते हैं और घृणित शन्दोंसे हमारा अपमान करते हैं । वास्तवमें, आजतक हमारे पूर्व-पुरुषोंने बड़े बड़े वीरताके काम करके जो कुछ नाम पैदा किया है, उसे ये बेशरम लोग शराब पी पीकर कलंकित कर रहे हैं । और यह बात तो प्राय: देखने में आती है कि मनुष्यका एकाध स्वाभाविक दुर्गण या कुसंगसे लगा हुआ दुर्गुण सारे सद्गुणोपर पानी फेरकर उसकी थुक्कानजीती कराता है । दुर्गुण ! फिर वह कैसाही क्यों न हो, चाहे स्वाभाविक हो या आगन्तुक-एकबार जहाँ उसने मनुष्यपर अपना अधिकार जमाया वहाँ उससे मनुष्यका सारा विवेक भ्रष्ट हो जाता है। मनुष्य कैसाही गुणी
और इजतदार क्यों न हो, एकबार जहाँ वह इन दुर्व्यसनोंके फेरमें पड़ा तहाँ उसका सर्वनाश हो जाता है। एक प्यालाभर शराबका ऐसा प्रताप है कि वह मनुष्यकी सारी इज्जत आबरूको क्षणमात्रमें नष्टकर उसे भ्रष्ट कर डालती है। विशाo-महाराज, देखिये देखिये ; वह आ रहा है !
(भूतका प्रवेश) __ जयन्त-जीवमात्र पर दया-दृष्टि रखनेवाले सारे देवताओ और देवदूतो, हमारी रक्षा करो ! रे पिशाच ! तू पिछले जन्ममें किये हुए पुण्य कार्योंसे उत्तम गतिको प्राप्त महात्मा हो, चाहे पापाचरणसे पिशाचयोनिको प्राप्त अधमात्मा हो ; मनुष्यमात्रका कल्याण करनेके लिये स्वर्गसे उतरा हुआ देवदूत हो, या उनपर दुःखका पहाड़ गिरानेके लिये
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