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जयन्त
[अंक २ करती हुई प्राणियों और वनस्पतियोंमें जान लाती है वह भी मुझे रोग और दुर्गन्ध फैलाने वाली मालूम होती है। मनुष्य भी कैसी अद्भुत कारीगरीका नमूना है ! उसको बुद्धि की कैसी महिमा है ! उसकी कल्पनाएँ कितनी ऊँची हैं ! शकल सूरत और चलना फिरना कैसा मनोहर लगता है ! उसका बोलना देवदूतके समान मधुर है ! और उसकी ग्राहकता तो साक्षात् परमेश्वरकी तरह है। संसारमें सबसे सुन्दर और जीवोंमें सबसे श्रेष्ठ जीव यही है ; ताप्तयं, ब्रम्हाने जो सृष्टि उत्पन्न की उसका यह सबसे अच्छा नमूना है। पर मुझे इन पञ्चमहाभूतोंकी सृष्टिसे ज़रा भी आनन्द नहीं आता । न मुझे पुरुषको देखकर सुख होता है; न स्त्रीके सौन्दर्य से ही दिल बहलता है । तुम हँसते हो-तुम्हें यह सब झूठ मालूम होता है । खैर।।
नय-महाराज, सचमुच, ऐसी बात तो कभी मेरे मनमें भी नहीं आई।
जयन्त-तो जब मैंने कहा कि स्त्री पुरुषको देखकर मुझे आनन्द नहीं आता, तब तुम क्यों हँसे !
नय-मैंने यह सोचा कि अगर मनुष्यको देखकर आपको आनन्द नहीं होता तो आप नाटकवालोंको क्या आश्रय देंगे ? वे लोग राहमें मिले थे; और आपके चरणोंकी सेवा करनेके लिये वे इधर ही आ रहे हैं ।
जयन्त-अजी, यह कहांकी नाटक-कंपनी है ? क्या यहां उनका यथोचित आदर सत्कार होगा !
नय-महाराज, वह यहींकी नाटक मण्डली है । आप उसकी प्राय: प्रशंसा किया करते हैं; और आप जानते हैं कि दुःखान्त नाकट खेलनेमें वह इस समय फ़र्द है ।
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