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दृश्य २ ]
बलभद्रदेशका राजकुमार ।
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प० नट – “रोदनसे सब गगन कँपाती बिलखाती हा हा करती" - क्या ? ' रोदनसे सब गगन कँपाती बिलखाती हा हा
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जयन्त
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करती ' ?
धू० -- वाह जी वाह ! गगन कँपाती ! बिलखाती ! हाहा करती ! वाह ! बहुत अच्छा ! क्याही मधुर शब्द हैं !
प० नट
केश हुए सब श्वेत धनुषसी झुकी हुई थी कटि जिसकी । रनभूमीकी ओर चली ले यष्टि हाथ जननी उसकी ॥ वृद्धादशा कठिन होती है तिसपर पतिका शोक महा । पैर नहीं उठता था मूर्छित हो जाती थी तुरत वहां ॥ रोदनसे सब गगन कँपाती बिलखाती हाहा करती । पवन विताडित जीर्णलतासी रुन पहुंची गिरती पड़ती ॥ पतिपातीको देख अश्रुजल लेकर ज्यों देती थी ज्ञाप । निश्चेतन हो गिरी भूमिपर प्राणपखेरु उड गए भाप ॥ धू० – देखिये, देखिये, महाराज ! उसका चेहरा कैसा उतर गया ! और आँखें भी कैसी डबडबा आई हैं । भाई, बस करो, बस करो ।
जयन्त
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- वाह ! बहुत ठीक । बाकी भी मैं तुमसे बहुत जल्द सुन लूंगा। क्यों महाशय ! इनका सब प्रबन्ध करना आपके तरफ़ रहा । सुना ? इनकी अच्छी तरह खातिर होनी चाहिये । क्योंकि ये नाटकवाले एक तरहके मुनादिये होते हैं । आपके मरनेके बाद आपके कंके पत्थरपर यदि कुछ भला बुरा लिख दिया जाय तो कोई चिन्ता नहीं; पर जीवित रहते इन लोगों के मुँह अपनी बदनामी न कराइये ।
धू ० - महाराज ! इनका यथा योग्य सम्मान किया जायगा ।
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