________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
८४
जयन्त
[अंक द्रोणने सुनी कठोर-- नहीं नहीं, 'अश्वत्थामा' इसी शद्वसे उस गानका आरंभ है ।
अश्वस्थामाके मरनेकी बात द्रोणने सुनी कठोर । पुत्र शोकसे शोकाकुल हो करसे स्यजी धनुषकी डोर । मरा प्राण प्रिय पुत्र जानकर धैर्य ज़रा न रहा मनमें । ज्ञात नहीं था उन्हें मरा है अश्वत्थामा गज रनमें । पुत्र कहाँ है लगे देखने सिर नतकर योगिक बलसे । अवसर पाकर धृष्टद्युम्नने काट लिया मस्तक छलसे ॥ अच्छा, अब इसके आगे कहो; देखें तो सही कैसा कहते हो।
धू०-वाहवा ! महाराज ! क्या बात है ! आपने तो साक्षात् गन्धर्वके समान गाकर दिखला दिया। प० नट-हुमा पितृवध जान पुत्रने किया दुःखसे हाहाकार ।
धृष्टद्युम्नकी धृष्ट नीच कृतिपर करता सौ सौ धिःकार ॥ कहाँ गये हा तात ! त्यजे क्यों मेरे लिये प्राण अपने । बीरवरोका काम छोड़कर हाय ! कालके कवल बने । तातहीन मुझको देखेगी वृद्धा हतभागी जननी। देख सकूँगा कैसे उसका घोर विलाप दिवस रजनी ॥ धू०-यह गान तो बहुत लम्बा चौड़ा जान पड़ता है।
जयन्त-कोई चिन्ता नहीं; हज्जामको बुलाकर आपकी सारी ढाढ़ी मोछ अभी सफाचट करा देता हूं । हाँ, भाई, कहो, आगे कहो, क्या हुआ । कृपाचार्यने अश्वस्थामाको बहुत समझा बुझा शान्त किया; पर उसकी माता कृपीने जब अपने प्यारे पुत्रके मरेनकी खबर सुनी तबका वर्णनात्मक पद्य कहो तो सही ।
For Private And Personal Use Only