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जयन्त
[अंक २
__धू०--रानी साहब ! मैं कसम खा सकता हूं कि अलंकारकी भाषामें मैं कभी बोलता ही नहीं। वह पागल है ; यह बात सच है। वह सच है, यह दुःखकी बात है । और शोक है कि यह सच है । यह अलंकार भद्दा है । खैर, जाने दीजिये, क्योंकि मैं अलंकारयुक्त बोलना नहीं चाहता । मान लीजिये, वह पागल है । इसका सबब क्या है ? या या कहिये, उसके पागलपनका क्या कारण है । बस, अब यही बात रह गई; और वह यह है । अच्छा, अब ध्यानसे सुनिये । मेरी एक कन्या है । ' मेरी ' मैं इस लिये कहता हूँ कि जबतक वह मेरे अधीन है तबतक वह मेरी ही है । उसने अपना कर्तव्य जान मेरी आज्ञानुसार यह पत्र मेरे हवाले किया । मैं पढ़ता हूँ ; आप सुनिये । और सुनकर अनुमान कर लीजिये । (पढ़ता है।) ___“ स्वर्गाङ्गने, मदात्मार्चिते, लावण्य-लतिके, प्रिय कमले, "छिः छिः, कैसा भद्दा समास है ? ' लावण्य लतिके,'-राम राम, बहुत ही भद्दा समास है । खैर, आगे सुनियेः- (पढ़ता है।)
" अपने निर्मल तथा कोमल अन्त:करणमें "रानी-क्या यह कमलाके नाम मेरे जयन्तको भेजी चिट्ठी है ?
धू-रानी साहब ! ज़रा धीरज रखिये । जो कुछ मुझे ज्ञात है वह सब मैं आपसे निवेदन करूँगा । (पढ़ता है। )
" नक्षत्रगणके तेजमें संदेह चाहे तुम करो ; हाँ, सूर्यके भी घूमनेमें शक भले ही तुम करो; तुम सत्यकी भी सत्यतामें कर सको सन्देहको, पर न समझो झूठ मेरे आन्तरिक इस नेहको।" " प्यारी कमला, क्षमा करना, मैं कविता करना नहीं जानता ।
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