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५.
जयन्त
[ अंक ओरसे कोई कुछ सन्देसा ले आए तो उससे मिला ही मत करो; और न उसकी कोई भेंट ही स्वीकार करो । इन सब बातोंकी सूचना पाते ही वह वैसा ही बर्ताव करने लगी। उसका ऐसा बर्ताव देख पहिले तो वह निराश हुआ ; फिर उसपर उदासी छा गई; खानेसे उसकी रुचि हट गई ; लब उसे अनिद्रारोग लगा, जिससे शरीर दुर्बल होगया; और शरीरकी दुर्बलतासे मगज़ खाली हो गया । इस प्रकार उसकी अवस्था बिगड़ती २ यहांतक बिगड़ी कि वह पागल हो गया । न जाने कबतक यह भोग उसे भोगना है !
रा०-उसके पागलपनका क्या यही कारण होगा ?
रानी-हां, हो सकता है। - धूल-इसमें सन्देहकी क्या बात है ? क्या ऐसा भी कभी हुआ है कि मैंने कहा कुछ और हुआ कुछ और ? यदि हुआ हो तो कह डालिये, स्वीकार करनेके लिये मैं प्रस्तुत हूँ।
रा०-नहीं, मेरे स्मरणमें तो ऐसा कभी नहीं हुआ।
धू०-यदि मेरी बात असत्य हो जाय तो मेरा सिर धड़से अलग कर दिया जाय । सत्यको ढूंढ निकालना मेरा काम है । समय और सामग्री अनुकूल हो तो पृध्वीके गर्भसे भी मैं उसका पता लगा सकता हूँ।
रा०-अस्तु, अब क्या करना चाहिये ? - धू०-आप जानते ही हैं कि वह चार चार घण्टेतक बराबर इसी आंगनमें टहला करता है।
रानी-हां, टहला करता है । फिर ? - धू०-ऐसे ही अवसरपर कमलाको उसके पास भेज देना चाहिये।
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