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जयन्त
[ अंक १
जयन्त — क्यों ? इसमें डर ही क्या है ? अपने जीवनको तो मैं तिनकेके समान समझता हूँ। और आत्मा अविनाशी ही हैं। इस भूतके बिगाड़े भला उसका क्या बिगड़ सकता है ? देखो, वह फिर मुझे बुला रहा है। मैं उसके साथ जाता हूँ ।
विशा
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- महाराज, ऐसा पागलपन न करिये । भूत प्रेतकी बातोंआप क्यों आ रहे हैं ? देखिये यह कितना ऊँचा पहाड़ है ! इसके नीचेका हिस्सा समुद्रमें चला गया है । इसपर चढ़कर समुद्रकी ओर मुँह करके यदि कोई खड़ा रहे तो तुरन्त चक्कर आकर नीचे समुद्र में उसके गिरपड़नेकी सम्भावना है । देखिये - सुनिये, पहाड़से समुद्रकी लहरोंके टकरानेकी कैसी भयानक आवाज़ आ रही है ! अगर यह पिशाच आपको बहँकाकर वहाँ ले गया और वहां पहुँच कर उसने कोई भयानक रूप धारण कर लिया तो आपका सारा ज्ञान वहाँ भूल जायगा, और आपके मुँहसे एक शब्द भी न निकलेगा । इस बातको आफ पहिले सोच लें, —– जान बूझकर आगमें न कूद पड़े ।
जयन्त—देखो, वह अत्रतक मुझको बुला रहा है । अरे चल, तू आगे चल, मैं तेरे पीछे पीछे आता हूँ ।
विशा० - महाराज, हम लोग आपको नहीं जाने देंगे ।
जयन्त छोड़ो, मुझे छोड़ दो ।
विशा० - मान जाइये, महाराज, हम लोग आपको कभी नहीं जाने देंगे ।
जयन्त - मित्रो, मेरे कार्यमें बाधा मत डालो । क्रोधसे मेरा शरीर जल रहा है । भूत प्रेतोंसे मैं डरने वाला नहीं हूं । देखो देखो, वह अब तक मुझे बुला ही रहा है । भले आदमियो, छोड़ दो मुझे।
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