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विशा
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जयन्त
[ अंक १
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हे वायुदेव ! अपनी तीव्र गति मन्द करो; क्योंकि मेरी प्राणप्रिया - के होठ और कोमलांगके फटनेसे उसे कष्ट होंगे । ओफ़ ! कैसा यह प्रेम ! ऐसे योग्य पतिको छोड़ इस कौएको इसने आलिंगन दिया ! आह ! कैसी प्रबल कामवासना !! पतिकी मुत्युसे वह शान्त होनी चाहिये या और भी प्रज्वलित होनी चाहिये ? और यह सब काम एक ही महीनेके भीतर ! छोड़ दो, जाने दो, जाने दो इन विचारों को । स्त्री मात्र अधीर होती है ! एक महीना भी नहीं हुआ कि यही - हां, यही साड़ी पहन कर मेरे पिताके मृत शरीरको यह स्मशानमें पहुचाने गई थी ! हां, हां, यही वह - ! हा ! परमेश्वर ! विचारहीन पशु भी इस काममें ऐसे अवसरपर इतनी जल्दी न करता ! मेरे चचाके साथ - मेरे पिताके सगे भाईके साथ विवाह करनेवाली - वही यह दुष्ठा ! हा ! हे भगवन् ! न जाने इसके कौनसे गुणोंपर यह मोहित हो गई ! एक महीने के भीतर इस दुष्टा चाण्डालिनके आखोंके कपटी आँसू भी अभीतक न सूखे होंगे कि इसने विवाह किया ! मेरे चचासे—अपने पतिके भाईसे जारकर्म करानेके लिये इतनी नीच शीघ्रता ! यह अच्छा नहीं है । और इसका परिणाम भी अच्छा होनेवाला नहीं । पर किया क्या जाय ? मन ही मन जल भुनकर मरना होगा । मुंहसे एक शब्द भी निकालने का अवसर नहीं है ।
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( विशालाक्ष, बीरसेन और भीमसेन प्रवेश करते हैं ।
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- महाराजका जयजयकार हो ।
जयन्त - तुम्हें देख कर मुझे बहुत आनन्द हुआ । विशालाक्ष, या मैं भूलता तो नहीं हूँ ।
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