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दृश्य २] बलभद्रदेशका राजकुमार । हमारे नेत्रोंको संतुष्ट रखो और राज्य शासनमें हमें सहायता दो।
रानी-प्यारे जयन्त, अपनी माँकी बात खाली न जाने दो। मंगलापुर जानेका विचार छोड़ हमारे साथ रहो ; यही तुमसे मेरी प्रार्थना है । - जयन्त-माँ, जहाँतक हो सकेगा, आपकी आशाका उल्लंघन मैं कभी नहीं करूंगा।
राजा-वाह ! बहुत योग्य उत्तर दिया । अब हम सब बलभद्रमें बड़े आनन्दसे रहेंगे । प्रिये, चलो, अब चलें । जयन्तने आपही आप यहां रहना स्वीकार कर लिया, यह सुन मेरे आनन्दकी सीमा नहीं रही। अच्छा तो, आओ चलें।
(जयन्तके अतिरिक्त सब पाते हैं।) जयन्त-आह ! यह कठोर मांस आप ही आप जल जाता या पिघलकर इसका पानी पानी हो जाता तो बहुत अच्छा था । या शास्त्रकारोंने आत्महत्याका निषेध न किया होता तो भी बहुत अच्छा होता । हे जगन्नायक ! जगतके पिता ! मुझे इस संसारकी वस्तुमात्रस घृणा हो गई है । सारा संसार मुझे निस्सार और तुच्छ प्रतीत हो रहा है। धिक्कार है ! धिक्कार है इस संसार को !! सारा संसार मुझे किसी उजाड़ बागकी तरह मालूम हो रहा है । संसारकी सारी वस्तुएं मुझे भद्दी और तुच्छ मालूम होती हैं । हाय हाय ! उसकी यह दशा !! उसकी मृत्युको अभी केवल दो महीने हुए होंगे नहीं, अभी पूरे दो भी नहीं हुए । हा ! कैसा आदर्श राजा ! कहां वह सूर्य और कहां यह जुगनू ! मेरी माँ पर भी उसका कैसा प्रेम मा ! प्रेमसे पागल होकर कभी कभी वह यह कह बैठता था कि,
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