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जयन्त
[अंक १ राजा-मुझे इसमें बिलकुल सन्देह नहीं है । अच्छा तो जाओ।
(जय और विजय जाते है।) कहो, चन्द्रसेन, क्या खबर है ? अभी तुम क्या कहते थे ? अब कहो क्या चाहते हो ? मुझसे तुम जो चाहो मांग सकते हो। तुम्हारी बात कभी व्यर्थ न होगी । कहो कहो, ऐसी कौनसो वस्तु है जो तुम चाहते हो पर मैं दे नहीं सकता और तुम मांग भी नहीं सकते ! तुम्हारे पिताने इस राजगद्दीके अनेक उपकार किये हैं । इस राजगद्दीसे उनका वही सम्बन्ध है जो हृदयका मस्तिष्कसे और मुंहका हाथसे है । जो इच्छा हो मांगो।
चन्द्र०-हे पृथ्वीनाथ ! दास केवल उत्तालको लौट जानेकी आज्ञा चाहता है । महाराजके राज्याभिषेकके समय अपना कर्तव्य पालन करनेके लिये मैं बड़े आनन्दसे यहां आया था । उस कामसे अब निपट
चुका हूं। और अब मेरा चित्त भी उत्तालको ओर लग रहा है । इस लिये उधर लौट जानेकी आज्ञा पानेके लिये मैं स्वामिचरणों में प्रार्थना करता हूं।
राजा-क्या तुमने अपने पिताको आशा ले ली है ? उनकी क्या राय है ?
धू०-जानेके लिये बार बार कहकर इसने नाकों दम कर दिया इससे बेबस हो मैंने उसे जानेकी आज्ञा दे दी है । मेरी भी सविनय यही प्राथना है कि महाराज भी इसे जानेको आशा दे दें।
राजा-ठीक है। चन्द्रसेन, अपना सुभीता देखकर तुम जा सकते हो । अब, मेरे प्यारे भतीजे, मेरे पुत्र जयन्त......
जयन्व-(एक ओर) इसके ये प्यारके शन्द मुझे काटोंसे चुभ रहे हैं।
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