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भारतीय आर्य-भाषा
तक प्राप्त कर सकते हैं। डॉ० कीथ का कहना है कि वैदिक संहिताओं, ब्राह्मणों, आरण्यकों और उपनिषदों में वैदिक भाषा का बराबर क्रमिक विकास पाया जाता है । यह भी स्पष्ट है कि 'भाषा' ब्राह्मणों और उपनिषदों की भाषा से अभिन्न न होते हुए भी, उससे घनिष्ठतया सम्बद्ध है । इतना होने पर भी उत्तर भारत में कुछ आर्येतर भाषाएँ भी प्रचलित थीं जो कि धीमे-धीमे समाप्त हो रही थीं जैसे पालि जातकों में वर्णित 'चाण्डालों' की भाषा प्रचलित थी किन्तु साथ-साथ वे अभिजात ब्राह्मणों की भाषा भी सीखते थे ।
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डा० चटर्जी ने बुद्ध के समय में आर्यभाषा की भाषागत स्थिति का चित्रण यों किया है
(1) तीन प्रादेशिक बोलियाँ - (अ) उदीच्य (ब) मध्यदेश तथा (स) प्राच्य विभागों की बोली । उदीच्य अब भी वैदिक के निकटतम थी, जबकि प्राच्य उससे सर्वाधिक दूर चली गई थी। इन सभी पर अनार्य प्रभाव पड़ता आ रहा था ।
(2) 'छान्दस' या आर्ष या प्राचीन कविता की भाषा, जो प्राचीनतम आर्य भाषा का साहित्यक रूप थी और जिसका ब्राह्मण लोग पाठशालाओं में अध्ययन करते थे ।
(3) छान्दस को अपेक्षाकृत एक नवीन रूप, अथवा मध्यदेश तथा प्राच्य की प्रादेशिक भाषाओं के उपादानों से युक्त उदीच्य का एक पुराना रूप कहा जाता था । यह ब्राह्मणों में प्रचलित परस्पर व्यवहार तथा शिक्षण की शिष्ट भाषा थी, उनके द्वारा वेदों की भाष्य टीका तथा धार्मिक कर्मकाण्ड एवं दार्शनिक विवेचनों के लिए प्रयुक्त होती थी । ब्राह्मण ग्रन्थों में हमें यही भाषा मिलती है। इस प्रकार वैदिक भाषा का परिनिष्ठित रूप ब्राह्मण ग्रन्थों
' में पाते हैं। यह एक प्रकार से वैदिक भाषा का साहित्यिक रूप था। इस भाषा पर धीमे-धीमे द्रविड़, किरात और मुण्डा भाषा के शब्दों का भी प्रभाव अप्रत्यक्ष रूप से पड़ा था । वैदिक भाषा की रक्षा तथा अध्ययन के लिए वेदाङ्गों की रचना की गई थी । वेदाङ्ग 6 थे - शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द और ज्योतिष ।