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ॐ गीता दर्शन भाग-50
प्रेम में डूब जाए, वह प्रेम के संबंध में कुछ भी न सोचा हो। और जानने का संबंध पूरे अस्तित्व से है। जानने का संबंध सोचने से यह भी हो सकता है, और अक्सर होता है, कि जिन्होंने प्रेम के कम, मौन हो जाने से ज्यादा है। जानने का संबंध शब्द से कम, संबंध में बहुत सोचा है, वे प्रेम करने में असमर्थ ही हो जाएं। निःशब्द, शून्य, शांत से ज्यादा है। सोचने से ही उनको परितृप्ति मिल जाए, या सोचने को ही वे ___ जब कोई शांत हो जाता है शब्दों से, तो दर्पण बन जाता है। और परिपूरक, सब्स्टीटयूट समझ लें।
| उस दर्पण में जो झलक मिलती है, वह जानना है। और जब कोई बहुत-से लोग ईश्वर के संबंध में सोचते रहते हैं। उस सोचने शब्दों के धुएं से भरा रहता है, तो कोई झलक नहीं मिलती। कोई को ही वे समझते हैं कि अनभव हो रहा है। सोचना अनभव नहीं झलक नहीं मिलती। है। सोचना सहयोगी हो सकता है, सोचना उपयोगी हो सकता है, | | पंडित अपने ही शब्दों में भटकता है, अपने ही शब्दों में उलझता लेकिन सोचना अनुभव नहीं है। और सोच-सोचकर कोई कहीं भी | | रहता है, अपने ही शब्दों को हल करता रहता है। अपने ही सवाल, नहीं पहुंचता है, कभी नहीं पहुंचा है। जानना पड़े। तो तत्वज्ञान से अपने ही जवाब देता रहता है। दर्शनशास्त्र-फिलासफी के अर्थों अर्थ है, जानना।
में अपना ही सवाल है, अपना ही जवाब है। कृष्ण कहते हैं, जानना मैं हूं। विचारणा नहीं, थिंकिंग नहीं, | तत्वज्ञान सवाल अपना है, जवाब उसका है। सवाल पूछकर नोइंग।
साधक चुप हो जाता है, शून्य हो जाता है। जैसे झील शांत हो जाए विचार का अर्थ है कि जिसका मुझे पता नहीं है, उसके संबंध | और सारी लहरें बंद हो जाएं और आकाश का चांद झील में झलकने में, जो मुझे पता है, उसके आधार पर कुछ धारणा बनानी है। | लगे। और झील में लहरें हों, तो भी आकाश का चांद तो.झलकता जिसका मुझे पता नहीं है, उस संबंध में, जिन चीजों का मुझे पता है, लेकिन लहरें उसे हजार खंडों में तोड़ देती हैं। है. उनके आधार पर कोई धारणा निर्मित करनी है. बौद्धिक कोई देखें. पर्णिमा के दिन कभी झील पर जाकर देखें। चांद तो एक खयाल निर्मित करना है। कोई इमेज, कोई प्रतिमा निर्मित करनी है। है ऊपर, लेकिन झील में हजार टुकड़ों में बिखरा होता है। हजार लेकिन विचारों की। और विचार क्या हैं? शब्दों के संग्रह हैं। शब्दों खंडों में बंटा हुआ झील की लहरों पर बहता होता है। चांद नहीं टूट से-न तो शब्द की आग से कोई जल सकता है, और न शब्द के गया है, लेकिन झील का दर्पण टूटा हुआ है, इसलिए हजार चांद : फूल से कोई सुगंध मिलती है। शब्द के परमात्मा से भी कोई दिखाई पड़ते हैं। झील शांत हो जाए, ऐसी शांत कि दर्पण बन जाए, अनुभव नहीं मिलता। -
तो चांद जो ऊपर है, वही एक चांद नीचे दिखाई पड़ने लगता है। शब्द परमात्मा परमात्मा नहीं है। तो कोई कितना ही शब्द को फिर झील जब बिलकुल शांत होती है, तो पता ही नहीं चलता कि रटता रहे और परमात्मा-परमात्मा दोहराता रहे, शब्द को ही झील है भी। सिर्फ दर्पण ही रह जाता है। दोहराता रहे, तो कहीं पहुंचेगा नहीं। यह भी हो सकता है कि ठीक ऐसे ही मन पर जब विचार होते हैं, तो तरंगें होती हैं। उन्हीं दोहराते-दोहराते इस भ्रम में पड़ जाए कि मैं जानता हूं। बहुत लोग तरंगों से जो व्यक्ति सोच-सोचकर तय करता है कि चांद कैसा है, पड़ जाते हैं। पंडित की यही भूल है।
| उसका चांद खंडों में बंटा हुआ होगा। __ और इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि पंडित अज्ञानियों से भी | कृष्ण कहते हैं, तत्वज्ञान मैं हूं। ज्यादा भटक जाते हैं। पंडित की यही भूल है। शब्द का धनी होता जब कोई पूर्ण शांत हो जाता है, तब उसे तत्व का पता चलता है। है। शास्त्र का ज्ञाता होता है। सिद्धांत उसे स्मरण होते हैं। उसके वह जो है, दैट व्हिच इज़, उसका पता चलता है। जो है, उसका नाम पास धनी स्मृति होती है। उसी स्मृति को दोहराते-दोहराते वह इस तत्व है। उसका कोई और नाम नहीं है। जो भी है, शांत हो गए व्यक्ति भ्रांति में पड़ जाता है कि जो मैं दूसरों को कहता हूं, वह मैं भी जानता के भीतर झलकता है। और तब जो अनुभूति होती है, जो ज्ञान होता हूं। अपने ही शब्द सुनते-सुनते आत्म-सम्मोहित हो जाता है। है, वह मैं हूं। और उस क्षण में अखंड का अनुभव होता है। जब तक अपने ही शब्दों को दोहराते-दोहराते एक गहरी तंद्रा में खो जाता है | मन है खंडित, तब तक हम जो भी जानेंगे, वह खंडित होगा। जब और लगता है कि मैं जानता हूं।
मन होगा अखंडित, तब जो हम जानेंगे, वह अखंड होगा। जानना बड़ी दूसरी बात है। जानने का संबंध बुद्धि से कम, ___ तीसरा शब्द कृष्ण ने कहा है, अमूढ़ता मैं हूं, असम्मोह।
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