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६ गीता दर्शन भाग-5
सके, शक्ति में भी न देख सके, और इतने जो मैंने तुझे प्रतीक कहे, इनमें तुझे कोई खयाल न आए, तो फिर बहुत जानने से कोई प्रयोजन नहीं है। अब मैं तुझे कितना ही कहता रहूं, उससे कुछ हल न होगा। तू देखना शुरू कर
पूछते हैं हम बिना फिक्र किए कि क्या प्रयोजन है। मैं रोज ऐसे लोगों के संपर्क में आता हूं, जो कुछ भी पूछते चले आते हैं। जिन्हें यह भी पता नहीं कि वे क्यों पूछ रहे हैं। शायद उन्हें पूछना भी खाज या खुजली जैसा है। खुजा लेते हैं, थोड़ी-सी राहत मिलती है। भला नाखून लग जाते हैं, लहू निकल आता है, तकलीफ होती है, लेकिन खुजा लेते हैं। खुजाते वक्त लगता है कि कुछ कर रहे हैं। आपका प्रश्न, आपकी जिज्ञासा अगर खुजली जैसी हो, तो
है । कुछ भी पूछते रहने का कोई अंत नहीं है। पूछते चले जाएं जन्मों-जन्मों तक ! और जो भी उत्तर आपको मिलेंगे, उनसे केवल नए प्रश्न निर्मित होंगे, और कुछ भी न होगा।
कभी आपने खयाल किया, कि जो भी उत्तर आपको मिलते हैं, उनसे और दस प्रश्न खड़े हो जाते हैं। दर्शनशास्त्र पांच हजार साल में न मालूम कितने सवाल पूछा। एक भी सवाल हल नहीं हुआ। एक भी सवाल हल नहीं हुआ ! अगर हम पांच हजार साल का फिलासफी का इतिहास देखें, तो एक ' सवाल हल नहीं हुआ। यह बड़े मजे की बात है। इतने उत्तर दिए गए और एक भी हल नहीं हुआ। बल्कि और दूसरी घटना घटी। जितने जवाब दिए गए, उनमें और हजार-हजार प्रश्न खड़े हो गए।
ट्रेंड रसेल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि जब मैं बच्चा था और पहली दफा दर्शन की तरफ उत्सुक हुआ, तो मैं सोचता था कि जब मैं दर्शन में निष्णात हो जाऊंगा, तो मेरे भी कुछ सवाल हल हो गए होंगे, उनके जवाब मुझे मिल गए होंगे। मरने के पहले उसने अपने एक पत्र में लिखा है कि अब मैं बूढ़ा होकर यह कह सकता हूं कि मेरा एक भी सवाल हल नहीं हुआ। और दूसरी बात जो घट गई, जिसकी मुझे कल्पना ही नहीं थी, नए-नए सवाल और खड़े हो गए इस नब्बे साल की जिंदगी में।
ट्रेंड रसेल ने पहले तो दर्शनशास्त्र की परिभाषा की थी, मनुष्य के आत्यंतिक प्रश्नों के जवाबों की खोज । और अंत में उसने व्याख्या की है, मनुष्य के आत्यंतिक प्रश्नों के संबंध में और प्रश्नों की खोज। और कुछ नहीं, प्रश्न के बाद प्रश्न ! अगर आप पूछने के लिए पूछते चले जाते हैं, तो व्यर्थ है ।
कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, तेरा इतना सब पूछने का प्रयोजन ही
क्या है, अगर तू इशारा न समझ पाए ! तो फिर तू पूछता चला जा सकता है और मैं तुझे जवाब देता चला जा सकता हूं, उससे कुछ हल न होगा।
आज जमीन पर जो इतना कनफ्यूजन, इतना विभ्रम है, वह | इसलिए है कि इतने जवाब और इतने सवाल आपके मस्तिष्क में | खड़े हो गए हैं कि आज तय करना ही मुश्किल है कि आपका भी कोई प्रश्न है ? और प्रश्न आप पूछ रहे हैं, तो कुछ करने का इरादा है या यों ही पूछने चले आए हैं?
एक आदमी मेरे पास अभी दो दिन पहले आए थे। वे पूछने लगे कि सच में ईश्वर है ? तो मैंने उनसे पूछा, आपका क्या इरादा है ? अगर है, तो आप क्या करिएगा? और अगर नहीं है, तो आप क्या करेंगे? उन्होंने कहा, करना क्या है! ऐसे ही पूछने चला आया हूं। हो, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है उन्हें । न हो, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। तो यह प्रश्न किसलिए है? तब यह खुजली के जैसा है। फिर वे मुझसे बोले, और मैं कोई आपसे ही पूछ रहा हूं, ऐसा नहीं है। न मालूम कितने महात्माओं से मैं पूछ चुका
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एक गांव में तो मैं गया, तो लोग प्रश्न लिखकर देते हैं, एक आदमी ने छपा हुआ प्रश्न मुझे दिया, तब तो मैं बहुत हैरान हुआ। छपा हुआ प्रश्न ! मैं पहले ही दिन वहां बोला हूं और बोलकर मैं | उठने के करीब हूं कि उसने छपा हुआ प्रश्न दिया कि आप इसका उत्तर दें।
मैंने कहा, तुम इतनी जल्दी छपा कैसे लाए ? उन्होंने कहा, जल्दी का क्या सवाल है? यह तो मैंने तीस साल पहले छपाया था । और जो भी इस गांव में आता है, उसे मैं दे देता हूं कि इसका जवाब ! मैंने | उससे पूछा कि तुम्हें तीस साल में किसी ने जवाब नहीं दिए? उसने कहा, बहुत जवाब दिए, लेकिन किसी जवाब से तृप्ति नहीं होती । मैंने उसको कहा कि तुम तीस जन्म भी पूछते रहो, तो भी तृप्ति नहीं | होगी। क्योंकि जवाब से कहीं तृप्तियां हुई हैं, जब तक कि तुम्हें अपना जवाब न मिल जाए। दूसरे का जवाब क्या तृप्ति देगा !
मगर हमारी तो कठिनाई यह है कि अपना जवाब तो बहुत मुश्किल है, अपना सवाल भी नहीं होता; वह भी उधार होता है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, यह हमारा प्रश्न नहीं है। यह | मेरे एक मित्र का प्रश्न है। वे आए हैं; मित्र का प्रश्न है ! प्रश्न भी हमारे नहीं हैं। वे भी कोई हममें पैदा करवा देता है। फिर किसी के प्रश्न और किसी के जवाब हममें इकट्ठे होते चले जाते हैं। और हम एक कचराघर हो जाते हैं।
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