________________
साधना के चार चरण
स्वभाव है, वही आपका स्वधर्म है। फिर डरें मत। ध्यान रहे, इसका मतलब क्या होता है ? इसका मतलब यह होता है कि फिर आलसी होने से जो परिणाम भोगना पड़ें, वे भोगें । पत्नी गाली देगी। पिता डंडा लेकर खड़ा हो जाएगा। पास-पड़ोसी निंदा करेंगे। सब जगह बदनामी होगी। उसको शांति से सुनना कि वे लोग बदनामी करने में बंधे हैं, बदनामी कर रहे हैं। मैं आलसी हूं, मैं आलसी हूं।
अगर आप इतना भी कर पाएं, तो आपका आलस्य ही आपकी साधना हो जाएगी। कर्म भी साधना बन जाता है, अगर हम उसे स्वीकार कर लें। आलस्य भी साधना बन जाता है, अगर हम उसे स्वीकार कर लें। अपने स्वभाव को स्वीकार करके जो निष्ठापूर्वक जीता है, परमात्मा उससे दूर नहीं है। वह स्वभाव कुछ भी हो।
एक दूसरे मित्र ने भी यही पूछा है । उनको डर यह है कि अगर यह बात मान ली जाए कि नियति ठीक है, तो फिर चोर चोरी करता रहेगा, पापी पाप करेगा, हत्या करने वाला हत्या करेगा, फिर तो दुनिया बिलकुल विकृत हो जाएगी । फिर दुनिया का क्या होगा ?
दु
निया का इतना डर क्या है ? आपसे दुनिया चल रही "है? डर सदा अपना है। अगर हत्यारा सुनेगा कि नियति है; सब भगवान ने पहले से किया हुआ है; जिनको मारना है, अर्जुन से वे कह रहे हैं, उनको मैं पहले मार चुका, तो हत्यारा सोचेगा, बिलकुल ठीक। जिसको मुझे मारना है, भगवान उसको पहले से मार चुके हैं। मैं तो निमित्त मात्र हूं। यह हत्यारे का ही डर है उसके भीतर ।
लेकिन अच्छा है, अगर नियति की बात सोचकर आपके भीतर की असलियत बाहर आती हो, तो यह आत्म-निरीक्षण के लिए बड़ी कीमती है। अगर आपको ऐसा लगता हो कि स्वीकार कर लो सब और पहला खयाल यह आता हो कि लेकर तिजोड़ी पड़ोसी की नदारद हो जाओ; तो यह आत्म-निरीक्षण के लिए बड़ा उपयोगी है। इससे आपके भीतर जो छिपा है, वह प्रकट होता है।
आप अभी तक अपने को समझ रहे हों कि साधु हैं, आप हैं चोर; नियति के विचार ने आपको जाहिर कर दिया, उजागर कर दिया आपके सामने, नग्न रख दिया। आप अब तक सोचते हों,
बड़ा शांतिवादी हूं; और अब पता चला कि दो-चार की हत्या करने में हर्ज क्या है ! वे कृष्ण तो पहले ही हत्या कर चुके हैं, मैं तो अर्जुन हूं, निमित्त मात्र ! तो मैं कर दूं? तो आपको पता चला कि साधुता | वगैरह सब ओछी, थोथी, ऊपर-ऊपर थी। भीतर यह असली खूनी छिपा है।
नियति का विचार भी आपको आत्म-निरीक्षण का कारण बन जाएगा, एक और दूसरी बात, नियति के विचार की पूरी श्रृंखला को समझ लेना जरूरी है। आप सोचते हों कि मैं किसी का सिर खोल दूं, क्योंकि यह तो नियति है । लेकिन वह भी आपका सिर खोलेगा, तब ? तब भी नियति ही मानना । तब नाराज मत हो जाना। तब चिंतित मत होना। जब आप किसी की तिजोड़ी लेकर जाएं, वह तो ठीक है। लेकिन जब कोई आपकी तिजोड़ी लेकर चला जाए, या चार आदमी रास्ते में मिलकर आपकी तिजोड़ी छीन लें...।
मैंने सुना है, एक चोर पर मुकदमा चला। तीसरी बार मुकदमा चला। और मजिस्ट्रेट ने उससे पूछा कि तुम तीसरी बार पकड़े गए हो। दो बार भी तुम्हारे खिलाफ कोई गवाही नहीं मिल सकी, कोई | चश्मदीद गवाह नहीं मिला, जिसने तुम्हें चोरी करते देखा हो । अब तुम तीसरी दफे भी पकड़े गए हो, लेकिन कोई गवाह नहीं है। तुम क्या अकेले ही चोरी करते हो? कोई साझीदार, कोई पार्टनर नहीं रखते? उस चोर ने कहा कि दुनिया इतनी बेईमान हो गई कि किसी से साझेदारी करना ठीक नहीं है।
353
चोर भी सोचते हैं कि ईमानदार से साझेदारी करो, कि दुनिया इतनी बेईमान हो गई कि साझेदारी चलती ही नहीं! अकेले ही करना है, जो करना है। किसी का भरोसा नहीं है। चोर भी चाहता है कि कोई भरोसे वाला आदमी मिले।
ध्यान रखना, आप जब किसी का सिर खोल दें, तभी नियति नहीं है। जब वह लौटकर आपका सिर खोल दे, तब भी नियति है । अगर दोनों की स्वीकृति हो, तो आप जाएं और सिर खोल दें; देर मत करें। अगर ये दोनों की स्वीकृति हो कि जब आप किसी की चोरी करें, तब भी; और जब कोई आपका सब छीनकर ले जाए, तब भी । नियति का मतलब यह नहीं है कि आपके पक्ष में जो है वह नियति । नियति के दोनों पहलू हैं।
ध्यान रहे, जो आदमी नियति को स्वीकार कर लेता है, उसका जीवन इतना शांत, इतना मौन हो जाता है कि अगर परमात्मा ही चाहे, तो ही उससे चोरी होगी। इसे समझ लें ठीक से ।
वह इतना मौन और शांत हो जाता है सब स्वीकार करके कि