Book Title: Gita Darshan Part 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 438
________________ ६ गीता दर्शन भाग-5 हे अर्जुन! मनुष्य-लोक में इस प्रकार विश्वरूप वाला मैं न वेद के अध्ययन से, न यज्ञों के करने से, न दान से, न क्रियाओं से, न उग्र तपों से ही तेरे सिवाय दूसरे से देखे जाने योग्य शक्य हूं। यह बड़ी गहरी और महत्वपूर्ण बात कही है। कहा है कि वेद के अध्ययन से भी यह नहीं होगा। यज्ञों के करने से भी यह नहीं होगा । दान से भी नहीं होगा। क्रियाओं से योग की भी नहीं होगा। उग्र तपों से भी यह नहीं होगा। क्यों नहीं होगा ? वेद के अध्ययन से क्यों नहीं होगा ? क्यों, यज्ञ कोई साधेगा, तो नहीं होगा ? क्यों नहीं योग की क्रियाएं इस स्थिति में ले जाएंगी ? यह नहीं होगा इसलिए कि वेद का अध्ययन हो, या यज्ञ हो, या योग की साधना हो, ये सारी की सारी प्रक्रियाएं स्वयं पर भरोसे से होती हैं। इनमें व्यक्ति अपना ही केंद्र होता है। ये समर्पण के प्रयोग नहीं हैं। ये सब संकल्प के प्रयोग हैं | और अर्जुन की घटना समर्पण से घटेगी, संकल्प से नहीं । कोई कितना ही योग साधे, वह अर्जुन नहीं बन पाएगा, कृष्ण बन सकता है। इसे थोड़ा समझ लेना । कितना ही योग साधे, कृष्ण बन सकता है। इसलिए हम कृष्ण को महायोगी कहते हैं। वह बुद्ध बन सकता है। क्योंकि संकल्प अगर इस जगह पहुंच जाए कि मैं अपने भीतर प्रवेश करता जाऊं अपनी ही शक्ति से, तो एक दिन उस बिंदु का अनावरण कर लूंगा, जो मुझमें छिपा है। लेकिन तब मैं अर्जुन नहीं रहूंगा, मैं कृष्ण जाऊंगा । अर्जुन दूसरी ही प्रक्रिया है । वह संकल्प नहीं, समर्पण है। वहां स्वयं खोज नहीं करनी, जिसने खोज लिया है, उसके चरणों में अपने को छोड़ देना है। तो अर्जुन है, मीरा है, चैतन्य हैं, इनकी पकड़ दूसरी है; यह दूसरा उपाय है। जगत में दो तरह के मन हैं। एक, जो संकल्प से पाएंगे परमात्मा को। दूसरे, जो समर्पण से पाएंगे परमात्मा को समर्पण में अपने बिलकुल छोड़ देना है। रामकृष्ण कहते थे उनकी बात से इस सूत्र को मैं पूरा करूं – रामकृष्ण कहते थे, नदी को पार करने के दो ढंग हैं। एक तो है कि नाव को खेओ पतवार से यह संकल्प है। और एक है कि प्रतीक्षा करो। जब हवाएं अनुकूल हों, तब पाल बांध दो और नाव में चुपचाप बैठ जाओ। नाव खुद चल पड़े। पाल में भरी हुई हवाएं उसे ले जाने लगें। यह समर्पण है। कृष्ण की हवा है, अर्जुन ने तो सिर्फ नाव के पाल खोल दिए । अर्जुन खुद नहीं चला रहा है नाव को। हवा कृष्ण की है। बुद्ध खुद चला रहे हैं। पाल वगैरह नहीं हैं उनकी नाव पर। और | पाल वगैरह वे पसंद भी नहीं करते। मरते वक्त बुद्ध ने आनंद को कहा है, अपने पर ही भरोसा रखना, किसी और पर नहीं । स्वभावतः, जिसने नदी को नाव को खेकर पार किया हो पतवारों से, वही कहेगा । एक है समर्पण, कि छोड़ दो नाव उस पर, अनुकूल हवाओं के लिए। वह ले जाए पार या डुबा दे, तो भी समझना कि वही किनारा | है । या खुद अपने ही बल से नदी को पार कर लेना । इसलिए कृष्ण कहते हैं, न वेद के अध्ययन से, न यज्ञ अनुष्ठान से, न योग की क्रिया से, न उग्र तपश्चर्या से यह होता है अर्जुन, जो तुझे हुआ है। यह समर्पण से होता है। आज इतना ही पांच मिनट रुकें। कीर्तन पूरा करें और जाएं। और कीर्तन में सम्मिलित हों। बैठे रहें अपनी जगह, लेकिन कीर्तन में भाग लें। 408

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