Book Title: Gita Darshan Part 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 461
________________ ६ आंतरिक सौंदर्य ६ न जाने वाली चेतना नया आयाम पकड़ लेती है। आपने सुनी हैं दस दिशाएं। जो जानते हैं, वे कहते हैं, ग्यारह दिशाएं हैं। दस दिशाएं बाहर हैं और एक दिशा भीतर है। जब दसों दिशाएं बेकार हो जाती हैं, तब चेतना भीतर की तरफ मुड़ती है। जब और कहीं नहीं मिलता वह, तभी आदमी अपने में खोजता है- आखिरी समय में, अंतिम क्षण में । तो अगर आपको पता चल गया कि आप भगवान हैं, तब तो बात ही खतम हो गई। खोज व्यर्थ है। अगर मेरे कहने से मान लिया, तो अभी खोज करनी पड़ेगी। मेरे कहने से मान ली गई बात आपका अनुभव नहीं है। मेरे कहने से खोज शुरू होगी, अनुभव नहीं हो जाएगा। और ट्रेन में अभी चढ़ना होगा। और अगर आपकी यह जिद हो कि अगर उतरना ही है बाद में तो हम चढ़ेंगे नहीं, तो आपकी मर्जी। लेकिन फिर आप समझ लेना कि अमृतसर पर ही खड़े हैं। फिर हरिद्वार की तरफ गति नहीं हो रही । चढ़ें भी, उतरें भी। सीढ़ियों पर चढ़ना भी पड़ता है, उतरना भी पड़ता है। जो स्त्रीढ़ियों पर नहीं चढ़ता, वह नीचे की मंजिल पर रह जाता है। जो फिर जिद करता है कि मैं सीढ़ियों से उतरूंगा नहीं, वह सीढ़ियों पर रह जाता है। वह भी ऊपर की मंजिल पर नहीं पहुंचता। ऊपर की मंजिल पर वह पहुंचता है, जो सीढ़ियों पर चढ़ता है, फिर सीढ़ियों को पकड़ नहीं लेता, सीढ़ियों को छोड़ भी देता है। बुद्ध ने कहा है, कुछ नासमझ मैंने देखे हैं एक गांव में। वे नदी पार किए थे नाव में बैठकर। और फिर उन्होंने सोचा कि जिस नाव ने हमें नदी पार करवा दी उसको हम कैसे छोड़ सकते हैं! तो कुछ दिन तो वे नाव पर रहे। लेकिन नाव पर कब तक रहते ? भोजन की तकलीफ हो गई, मुसीबत हो गई। तो फिर उन्होंने सोचा, उचित यह है कि हम उतर जाएं और नाव को सिर पर लेकर चल पड़ें। क्योंकि जिस नाव ने हमको पार करवा दिया उसे हम कैसे छोड़ सकते हैं? और अगर छोड़ना ही था, तो फिर हम चढ़े ही क्यों थे? तो वे नाव को सिर पर लेकर गांव में निकले। गांव के लोगों ने पूछा, तुम यह क्या कर रहे हो ? बुद्ध उस गांव में थे । । बुद्ध ने कहा, ये पंडित हैं। ये बड़े ज्ञानी हैं। ये बड़े ज्ञानी हैं, अज्ञानी तो उसी पार रह गए, वे नाव पर ही नहीं चढ़े। ये ज्ञानी हैं। नाव पर चढ़ गए थे। लेकिन इनकी मुसीबत यह हो गई कि अब इन पर ज्ञान चढ़ गया है। यह नाव इनके ऊपर चढ़ गई। अब ये उसको छोड़ नहीं पा रहे हैं। अब ये शास्त्र को ढो रहे हैं। यह तो 431 और मूढ़ता हो गई। इसलिए उपनिषद ठीक कहते हैं, अज्ञानी भटकते हैं अंधकार में, ज्ञानी महाअंधकार में भटक जाते हैं। फिर से अज्ञानी होना जरूरी है। लेकिन वह फिर से अज्ञानी होना बड़ी और बात है । खोज छोड़नी पड़ती है, लेकिन करने के बाद । संसार छोड़ना पड़ता है, लेकिन जानने के बाद। त्याग मूल्यवान है, लेकिन भोग के बाद। अन्यथा उसका कोई मूल्य नहीं है। एक मित्र ने पूछा है कि भक्त अपनी पसंद के अनुसार इष्ट का साकार दर्शन कर लेते हैं। रामकृष्ण ने काली का किया या मीरा ने कृष्ण का या अर्जुन ने चतुर्भुज रूप कृष्ण का। क्या इस अवस्था को परम ज्ञान की अवस्था मान सकते हैं? य ह परम ज्ञान के पहले की अवस्था है; परम ज्ञान की नहीं। क्योंकि परम ज्ञान में तो दूसरा बचता ही नहीं। न काली बचती है, न कृष्ण बचते हैं, न क्राइस्ट बचते हैं। यह आखिरी है, सीमांत । यह आखिरी है। संसार समाप्त हो गया, अनेकता समाप्त हो गई, सब समाप्त हो गया। लेकिन द्वैत अभी भी बाकी रह गया, भक्त है और भगवान है। अभी भक्त भगवान नहीं हो गया है। अभी भक्त है और भगवान है। अभी दो बाकी हैं। सारा जगत खो गया। विविध रूप खो गए। सारे रूप दो में समाविष्ट हो गए। सारा जगत दो रह गया अब । भक्त है और भगवान है । सब तिरोहित हो गया। लेकिन दो अभी बाकी हैं। यह परम ज्ञान के ठीक पहले की अवस्था है। जैसे सौ डिग्री पर जब पानी उबलता है। अभी भाप नहीं बना है, उबल रहा है। बस अब भाप बनने के करीब है। एक क्षण और, और पानी भाप बन जाएगा। ठीक यह सौ डिग्री अवस्था है, बस जरा-सी देर है । जरा-सी देर है कि भगवान भी खो जाएगा और भक्त भी खो जाएगा और एक ही बच रहेगा। उसको फिर कोई चाहे तो भगवान कहे, और चाहे कोई भक्त कहे, चाहे कोई नाम न दे, कोई फर्क नहीं पड़ता। एक बच रहेगा, अनाम। वह अद्वैत की अवस्था है। अद्वैत परम ज्ञान है। परम ज्ञान की हमारी परिभाषा बड़ी अनूठी है। परम ज्ञान हम तब

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