Book Title: Gita Darshan Part 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 466
________________ ॐ गीता दर्शन भाग-58 रहे हैं, तो कीर्तन भी आपको शरीर से ही करना होगा। आप जहां हो जाता है, जो कि बहुत अनूठा है। हैं, वहीं से यात्रा हो सकती है। असल में सबसे ज्यादा कुरूप लोग वे ही होते हैं, जो खुद को दो छोटे-छोटे प्रश्न और हैं, फिर मैं सूत्र लेता हूं। | सुंदर मानते हैं। उनमें एक तरह की कुरूपता, प्रकट कुरूपता होती है, जो उनके चेहरे पर छाई होती है। चाहे वे कितना ही रंग-रोगन करें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लिपाई-पुताई कितनी ही शरीर एक बहिन ने पूछा है कि आपने कल कहा कि सुंदर | की करें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर उनको यह खयाल है स्त्री पूर्ण पुरुष की प्रतीक्षा करती है। तो क्या कुरूप | कि मैं सुंदर हूं, तो वह जो अहंकार है, वह सब तरफ से उनके स्त्री पूर्ण पुरुष की प्रतीक्षा नहीं कर सकती? क्या | व्यक्तित्व को कुरूप कर जाता है। उनकी सौंदर्य की स्थिति सतह कुरूप स्त्री को अधिकार नहीं है कि वह पूर्ण पुरुष से ज्यादा नहीं होती। की प्रतीक्षा करे? उसका भी मन तो होता है, बहिन ___ कुरूप से कुरूप व्यक्ति भी सुंदर हो जाता है, अगर उसके भीतर ने लिखा है, कि वह भी सुंदर पुरुष को पाए। और | उसे यह पता चल जाए कि मैं कुरूप हूं। और जैसा हूं, उसमें जरा यह भी पूछा है कि कुलप स्त्री भी क्यों सुंदर पुरुष भी झूठ करने की इच्छा न रह जाए, प्रामाणिक हो जाए उसका भाव, को पाना चाहती है? और कुरूप पुरुष भी क्यों सुंदर तो उसके भीतर से एक नए सौंदर्य का जन्म शुरू हो जाता है। और स्त्री को पाना चाहता है? जितना भीतर का सौंदर्य बढ़ता है, उतना ही शरीर उस सौंदर्य से आविष्ट होता चला जाता है। संतों के चेहरे पर जो सौंदर्य है, वह शरीर का नहीं है। वह कुछ 3 सका कारण है कि अपने को कोई कुरूप नहीं मानता! भीतर से आने वाली किरणों का है। O और कोई कारण नहीं है। अपने को कोई कुरूप नहीं | इस जगत में दो तरह के सौंदर्य हैं। एक तो सौंदर्य है शरीर का, मानता! अपने को तो लोग सुंदर ही मानते हैं! कुरूप | | आकृति का। एक सौंदर्य है अंतस का, अंतरात्मा का। आकृति का से कुरूप व्यक्ति भी अपने को तो सुंदर ही मानता है। इसलिए उस | | सौंदर्य तो बिलकुल काल्पनिक बात है। काल्पनिक कहता हूं संबंध में तो विचार करता ही नहीं। इसलिए कि आज जो सुंदर है, कल फैशन बदल जाए, तो कुरूप _ और यह अगर शरीर तक ही बात होती, तो मैं इस प्रश्न का उत्तर हो जाता है। ही नहीं देता। यह हमारे अध्यात्म की भी स्थिति है। हम अपने को | ऐसा समझें कि अगर जमीन पर एक ही आदमी हो, तो वह सुंदर तो ठीक मानते ही हैं, और अपने को ही मापदंड बनाकर सारे जगत | | होगा कि कुरूप होगा? उसको क्या कहिएगा? वह न सुंदर होगा, को तौलते हैं। यही भूल है।। | न कुरूप होगा। क्योंकि सुंदर और कुरूप की मान्यता तय करने अगर कोई व्यक्ति अपने को पहली दफे सोचेगा, तो अपने से | वाले दूसरे लोग हैं, वे तय करते हैं। ज्यादा कुरूप किसी को भी न पाएगा, अपने से बुरा किसी को नहीं चीन में गाल की हड्डी कुरूप नहीं समझी जाती, क्योंकि मंगोल पाएगा, अपने से बेईमान किसी को नहीं पाएगा। और जब अपने जाति की गाल की हड्डी बड़ी होती है। हिंदुस्तान में गाल की हड्डी को ठीक से देख लेगा, तो जो भी मिल जाए इस जगत में, उसे कुरूप है। चीन में चपटी नाक कुरूप नहीं समझी जाती। आर्य मुल्कों लगेगा कि अनुकंपा है परमात्मा की, क्योंकि मैं तो इसके बिलकुल में, हिंदुस्तान में, इंग्लैंड में, जर्मनी में चपटी नाक कुरूप है। क्यों? योग्य नहीं था। नीग्रो होंठ बड़े, सुंदर समझते हैं। और नीग्रो स्त्रियां पत्थर और ऐसा व्यक्ति जो अपने में ये सारी बुराइयां देख लेगा, वह लटकाकर होंठों को बड़ा करती हैं। क्योंकि बड़ा होंठ सुंदर है, सक्षम हो जाता है इन बुराइयों के पार होने में। क्योंकि बुराई के पार | क्योंकि बड़े होंठ के चुंबन की बात ही और है। सारी आर्य कौमें होने का पहला सूत्र है, उसकी पहचान। जो ठीक से देख लेता है। पतले होंठ को पसंद करती हैं। और बड़ा होंठ हो, लटका हुआ होंठ कि मैं बुरा हूं, वह अच्छा होना शुरू हो गया! और जो ठीक से देख हो, तो शादी होनी लड़की की मुश्किल हो जाए। क्या मतलब लेता है कि मैं कुरूप हूं, उसके जीवन में एक सौंदर्य का अवतरण हुआ? कौन है सुंदर? 436

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