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ॐ गीता दर्शन भाग-5 ॐ
आना, मैं अपने स्वभाव को उपलब्ध हो गया हूं।
स्वभाव जागतिक है; वह मनुष्य का नहीं है। यह स्वभाव क्या है अर्जुन का?
अर्जुन कह रहा है, मैं अपने स्वभाव में आ गया। मनुष्य का स्वभाव सशर्त है। वह कहता है, ऐसे होओ, ऐसे | परमात्मा के साथ साधक और भक्त का यही फर्क है, यह होओगे तो ही।
खयाल आखिरी ले लें। सुना है मैंने कि तुलसीदास एक बार...। पता नहीं कहां तक साधक कहता है, तुम जैसे हो, वैसा ही मैं तुम्हें देखने आऊंगा; सच है। लेकिन कहानी है कि तुलसीदास एक बार कृष्ण के मंदिर | अपने को बदलूंगा। यह संकल्प का रास्ता है। वह कहता है, मैं अपने में गए वृंदावन। तो वे तो थे राम के भक्त। और वे तो धनुर्धारी राम को बदलंगा। अगर तुम ऐसे हो, तो मैं अपने को बदलंगा। अपनी को ही सिर झुकाते थे। वहां देखा कि कृष्ण बांसुरी लिए खड़े हैं। | नई आंख पैदा करूंगा। और तुम जैसे हो, वैसा ही तुम्हें देखूगा। तो कहा गया है कि तुलसीदास ने कहा कि ऐसे नहीं, जब तक | | कृष्णमूर्ति का सारा जोर यही है कि उस पर कोई धारणा लेकर धनुष-बाण हाथ न लोगे, तब तक मैं न झुनूंगा।
| मत जाना। अपनी सब धारणा छोड़ देना। सत्य जैसा है, उसे तुम यह एक अर्थ में बड़ी अजीब-सी बात है। इसका मतलब हुआ | वैसे ही देखने को राजी होना। उसके लिए खुद को जितना तपाना कि आदमी भगवान पर भी शर्ते लगाता है कि ऐसे हो जाओ, तो | पड़े, गलाना पड़े, मिटाना पड़े, खुद की मूर्छा जितनी तोड़नी पड़े, ही! मेरे अनुकूल हो जाओ, तो ही! इसका तो मतलब यह हुआ कि | तोड़ना। लेकिन खुद को निखारना, उस पर कोई आग्रह मत करना भक्त भगवान को भी बांधता है। सोचता है, भगवान मुझे मुक्त | कि तू ऐसा हो जा। करें, लेकिन चेष्टा यह करता है कि मैं भी भगवान को बांध लूं। | साधक संकल्प से अपने को बदलता है। और एक दिन, जिस
लेकिन इसका एक और अर्थ भी है। और वह यह कि मैं हूं | दिन शून्य हो जाता है, शांत, शुद्ध, उस दिन सत्य को देख लेता है। मनुष्य। मेरी प्रीति-अप्रीति है। मेरे लगाव-अलगाव हैं। मैं तुम्हें | । भक्त! भक्त कहता है कि मैं जैसा हूं, हूं। मैं अपने को बदलने उसी रूप में देखना चाहता है, जो मेरे अनकल हो। और इसलिए वाला नहीं, तम्हीं मझे बदलना। और जब तक मैं ऐसा हं. तब तक देखना चाहता हूं उस रूप में, ताकि मैं जैसा हूं, वैसा का वैसा | | मेरी शर्त है कि तुम ऐसे प्रकट होना। भक्त यह कहता है कि मेरा तुम्हारे चरणों में झुक सकू। मेरा जैसा स्वभाव है, उसका ध्यान | | आग्रह है कि जब तक मैं नहीं बदला हूं, और मैं अपने को क्या रखो। वह यह नहीं कह रहे हैं कि तुम्हारा बांसुरी लिए हुए रूप जो बदल सकूँगा, तुम्हीं बदल सकोगे। और तुम भी मुझे तभी बदल है, वह भगवान का नहीं है। होगा। मेरे लिए नहीं है। मेरी पात्रता सकोगे, जब मेरा तुमसे नाता, तालमेल बन जाए। अभी मैं जैसा नहीं है उस रूप को स्वीकार करने की। तुम तो धनुष-बाण लेकर | हूं, इससे ही संबंध बनाओ। तो तुम इस शक्ल में आ जाओ, इस राम हो जाओ, तो मैं तुम्हारे चरणों में झुक जाऊं।
रूप में खड़े हो जाओ। मैं तुम्हें कृष्ण की तरह, राम की तरह, कथा बडी मीठी है। और कथा यह है कि मर्ति बदल गई. और क्राइस्ट की तरह चाहता हं. ताकि मेरा संबंध बन जाए। संबंध बन कृष्ण की मूर्ति की जगह राम धनुष-बाण लिए प्रकट हुए, तो | | जाए, तो फिर तुम मुझे बदल लेना। तुलसीदास झुके।
___ यह बड़ी मजेदार बात है। भक्त यह कह रहा है कि मैं अपने को अर्जुन कह रहा है, अब मैं अपने स्वभाव में आ गया, तुम्हें | | क्या बदलूंगा? कैसे बदलूंगा? मुझे कुछ भी तो पता नहीं है। और वापस वही देखकर, जो तुम थे।
| मेरी सामर्थ्य, शक्ति कितनी है? कि कैसे अपने को शुद्ध करूंगा? __ अर्जुन अपने स्वभाव के बाहर चला गया था? एक अर्थ में चला | | मैं तो अशुद्ध, जैसा भी हूं, यह हूं। तुम ऐसे ही मुझे स्वीकार कर गया था। और एक अर्थ में अपने गहरे स्वभाव में चला गया था। | लो। लेकिन इस अशुद्ध आदमी की धारणा है। तो तुम इस शक्ल इस अर्थ में बाहर चला गया था कि मनुष्य की बुद्धि के जो परे है, | में आ जाओ, ताकि मेरा संबंध जुड़ जाए। एक दफा संबंध जुड़ जाए वह उसके दर्शन में आ गया और वह भयभीत हो गया। उसकी सारी | और मैं तुम्हारी नाव में सवार हो जाऊं, फिर तुम जहां मुझे ले जाओ, की सारी मनुष्यता डांवाडोल हो गई। मनुष्य की पकड़ में न आ ले जाना। लेकिन अभी मेरी मर्जी की नाव बनकर आ जाओ। सके, ऐसा उसे दिख गया। और एक अर्थ में वह अपने गहरे । दोनों ही तरह घटना घटती है। जो अपनी सब धारणाओं को स्वभाव में चला गया था। लेकिन वह स्वभाव कास्मिक है, वह गिरा देता है, उसके लिए कोई नाव की जरूरत नहीं रह जाती। उसे
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