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8 गीता दर्शन भाग-50
लिखी गईं, उसके पहले भी मेरा सिद्धांत मौजूद था। तकलीफ होती है। क्या कारण है ? क्या-क्या तकलीफें हैं हमारे मन
उन दोनों किताबों में, जो प्रश्न आपने पूछा है, उसी गणित का | | में मानने में कि हम अपने को परमात्मा मान लें? विस्तार है, कि अंश कभी भी अंशी के बराबर नहीं हो सकता, खंड बड़ी तकलीफें हैं। क्योंकि परमात्मा मानते से ही आप जैसे हैं, कभी अखंड के बराबर नहीं हो सकता। और आस्पेंस्की ने लिखा | वैसे ही जी न सकेंगे। तब चोरी करने को हाथ बढ़ेगा और आप है कि खंड अखंड के बराबर है, टुकड़ा पूरे के बराबर है। क्यों? | अपने को परमात्मा मानते हैं, बड़ी घबड़ाहट होगी कि यह मैं क्या क्योंकि असीम के गणित में खंड हो ही नहीं सकता।
कर रहा हूं! तब किसी की जेब काटने को हाथ बढ़ेगा और परेशानी इसीलिए ईशावास्य का सूत्र बड़ा कीमती है कि पूर्ण से पूर्ण को होगी कि यह मैं क्या कर रहा हूँ! आपका यह खयाल भी, विचार निकाल लें, तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है। क्यों शेष रह जाता | | भी कि मैं परमात्मा हूं, आपकी जिंदगी को बदल देगा; आप वही है? क्योंकि आप निकाल ही नहीं सकते, तरकीब यह है। आप | | आदमी नहीं रह जाएंगे, जो आप हैं। निकाल ही नहीं सकते। पूर्ण से पूर्ण को निकाला नहीं जा सकता। । एक चौबीस घंटे परमात्मा की तरह मानकर जीकर देखें। कल्पना आप सिर्फ वहम में पड़ते हैं कि निकाल लिया। इसीलिए पीछे पूर्ण । ही सही, एक्ट ही करना पड़े, कोई हर्ज नहीं। एक चौबीस घंटे ऐसे शेष रह जाता है। वह सिर्फ आपका धोखा था कि मैंने निकाला। | जीकर देखें, जैसे मैं परमात्मा हूं। आपकी जिंदगी दूसरी हो जाएगी। निकालने का कोई उपाय नहीं है।
इससे घबड़ाहट है! हम अपने चोर को, बेईमान को, बदमाश आपको लगता है कि आप अंश हैं, यह धोखा है। अंश होने का | को बचाना चाहते हैं। तो कोई हमसे कह दे, शैतान हो, तो हमें कोई कोई उपाय नहीं है। आप पूरे के पूरे परमात्मा हैं, अभी और यहीं।। एतराज नहीं होता। कोई हमसे कह दे, भगवान हो, तो हमें बेचैनी ऐसा भी नहीं कहता हूं कि कल हो जाएंगे। क्योंकि जो आप नहीं | शुरू होती है, क्योंकि वह झंझट की बात कह रहा है। अगर मान हैं, वह आप कल भी नहीं हो पाएंगे। और जो आप नहीं हैं, वह | लें, तो फिर जो हम हैं, वही हम न रह पाएंगे, उसमें बदलाहट करनी होने का कोई उपाय नहीं है। कल हो सकता है. आपको पता चले. पडेगी। और उसमें हम बदलाहट नहीं करना चाहते हैं। तो फिर लेकिन हैं आप अभी और यहीं। जितनी भी देरी आपको लगानी है, उचित यही है कि हम न मानें। वह आप पता लगाने में कर सकते हैं, होने में कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन बिलकुल इनकार करने की भी हिम्मत नहीं होती, क्योंकि
बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, तो बुद्ध से पूछा गया कि तुम्हें क्या हर आदमी गहरे में तो चाहता है कि परमात्मा हो। वह चाह मिला? तो बुद्ध ने कहा, मिला कुछ भी मुझे नहीं, सिर्फ मैंने उलटा स्वाभाविक है। वह चाह वैसे ही है, जैसे बीज चाहता है कि वृक्ष खोया!
हो। जैसे कि बीज चाहता है कि खिले, फूल बने, आकाश में सुगंध पूछने वाला चकित हुआ होगा। क्योंकि हम सोचते हैं, ज्ञान में बिखराए। जैसे बीज चाहता है कि ऊपर उठे, सूरज को चूमे, मिलना चाहिए। हम तो लोभ से जीते हैं। हमारा तो गणित फैलाव आकाश में खिले। वैसे ही आपके भीतर भी जो असलियत छिपी का है। और बुद्ध कहते हैं कि मिला मुझे कुछ भी नहीं, उलटा खो है, वह प्रकट होना चाहती है। इसलिए वह कहती है, बढ़ो, फैलो, गया! क्या खो गया?
विस्तीर्ण हो जाओ। तो बुद्ध ने कहा, मेरा अज्ञान खो गया। और जो मुझे मिला है, । और विस्तीर्ण होने का अंतिम आयाम भगवान है। वही वह अब मैं जानता हूं कि मुझे सदा ही मिला हुआ था। वह मैंने कभी | विस्तीर्णता का आखिरी रूप है। और जब तक आदमी भगवान न खोया ही नहीं था। सिर्फ मुझे पता नहीं था। जो मेरी ही संपदा थी, | हो जाए, तब तक कोई तृप्ति नहीं है। क्योंकि जब तक जो आपके वह मेरी ही आंख से ओझल थी। जिस जमीन पर मैं सदा से खड़ा | भीतर छिपा है, वह पूरी तरह खुल न जाए, प्रकट न हो जाए, उसकी था, उसको ही मैं देख नहीं रहा था और सारी तरफ खोज रहा था। | पंखुड़ी-पंखुड़ी खिल न जाए, तब तक कोई चैन नहीं है। अपने को छोड़कर मैं सब तरफ भटक रहा था। और मैं सदा से था। इसलिए आदमी इनकार भी नहीं कर पाता, स्वीकार भी नहीं कर जो मुझे मिला है, वह उपलब्धि नहीं है, आविष्कार है, सिर्फ मैंने | पाता, ऐसी दुविधा में जीता है। लेकिन मैं आपसे कहता हूं कि उघाड़कर देख लिया है।
| उसके कोई खंड नहीं हए हैं। वह अखंड है। और वह अखंड की आप परमात्मा हैं अभी और यहीं। लेकिन हमें यह मानने में | | तरह ही आपमें मौजूद है, उसे स्वीकार करें। और उसके साथ जीने