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बेशर्त स्वीकार
वह कुछ भी कह रहा है। वह बच्चों जैसी बात है। वह जो कुछ भी कह रहा है, एक ही बात है। वह हर तरफ से कोशिश कर रहा है कि आपको मैं नमस्कार कर सकूं।
उस विराट के सामने हमारे पास नमन के सिवाय और नहीं है, झुक जाने के सिवाय और कुछ भी नहीं है ।
एक बहुत मजे की बात है कि सिर्फ भारत अकेला मुल्क है, जहां गुरु के चरणों में झुकने की लंबी धारा है। और अगर कहीं भी यह बात गई है, तो वह भारत से गई है। दुनिया में कहीं भी गुरु के चरणों में सिर रखकर अपने को सब भांति समर्पित करने की कोई धारणा नहीं है।
कुछ
भी
इसलिए पश्चिम से जब लोग आते हैं, तो उन्हें जो सबसे मुश्किल बात खटकती है, वह गुरु के प्रति इतनी अनन्य श्रद्धा खटकती है। इतनी श्रद्धा उनको अंधापन मालूम पड़ती है। और उनका मालूम पड़ना ठीक ही है। क्योंकि किसी के चरणों में सिर रखना, और किसी के प्रति इस तरह सब समर्पित कर देना, अजीब-सा मालूम पड़ता है और लगता है, यह तो एक तरह की मानव- प्रतिष्ठा हो गई ! यह तो मनुष्य की पूजा हो गई ! और उनका लगना ठीक है, क्योंकि उन्हें जो दिखाई पड़ रहा है, वह मनुष्य ही है।
लेकिन अगर किसी शिष्य को विराट की थोड़ी-सी भी किरण मिली हो किसी के द्वारा, तो अब वह क्या करे? वह कहां जाए ? वह कैसे अपने भार को हल्का करे?
उसके पास एक ही उपाय है कि वह सब तरह से झुक जाए। और यह झुकना बड़ा अदभुत है। यह झुकना दोहरे अर्थों में अदभुत है। जो मिला है, उसका अनुग्रह इससे प्रकट होता है। और इस झुकने | में और मिलने की संभावना सघन हो जाती है। जो बिलकुल झुकना जानता है, उसे सब मिल जाएगा। यह सवाल नहीं है कि वह कहां झुकता है। झुकने की कला जिसे आती है !
हम तो, कई लोग ऐसे हैं, जो नदी में खड़े हैं, पैर पानी में डूबे हैं, लेकिन झुक नहीं सकते, इसलिए प्यासे मर रहे हैं। क्योंकि झुकें, चुल्लू बनाएं, पानी को भरें, तब प्यास बुझ सके। खड़े हैं नदी में, लेकिन अकड़े हैं। झुक नहीं सकते। वह घड़ा भी, जो पानी में जाए, नझुके, आड़ा न हो, तो भर नहीं सकता; अकड़ा रहे।
हम नदी में खड़े हैं, परमात्मा चारों तरफ बह रहा है, मगर झुक नहीं सकते। कैसे झुकें ! वह जो झुकने का डर है, वह हमें अटका देता है।
धर्म की खोज झुकने की कला है। और जो झुककर चुल्लू भर
लेता है, फिर उसे पता चल गया रहस्य। फिर तो वह पूरा झुककर पानी में डुबकी भी मार ले सकता है। फिर तो वह जानता है कि अगर सिर को मैं बिलकुल झुका दूं और पानी के नीचे ले जाऊं, तो मैं पूरा ही नहा जाऊंगा।
अर्जुन कह रहा है कि जो मैंने जाना, जाना कि तुम्हीं हो सब कुछ। इसलिए हम गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश, क्या-क्या नहीं कहते रहे हैं ! जिन्होंने कहा होगा, हमें लगता है, कैसे लोग रहे होंगे ! लेकिन जिन्होंने कहा है, उन्होंने किसी कारण से कहा है । अगर हम बिना कारण के कह रहे हैं, तो जरूर हमें अजीब-सी बात लगती है कि गुरु ही ब्रह्मा, गुरु ही विष्णु, गुरु ही सब कुछ !
यही अर्जुन कह रहा है कि तुम्हीं सब कुछ हो, परात्पर ब्रह्म तुम्हीं हो।
उसने देखा। गुरु झरोखा बन गया। उसके द्वार से उसने पहली दफा झांका। सारी सीमाएं हट गईं; अनंत सामने आ गया। उस अनंत की छाया उस पर पड़ी। पहली दफा जो स्वप्न था, वह टूटा | और सत्य उदघाटित हुआ है। उसका अनुग्रह स्वाभाविक है। आज इतना ही।
पांच मिनट रुकें । कीर्तन करें, और फिर जाएं।
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