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गीता दर्शन भाग-5
रहेगी, मन भी रहेगा। दो बने रहेंगे।
कीर्तन का अंतिम लक्ष्य, ध्यान का अंतिम लक्ष्य, प्रार्थना का, पूजा का अंतिम लक्ष्य - एक बच रहे, छवि कोई न रहे।
तो जब आप कीर्तन कर रहे हैं, तो छवि की फिक्र न करें। छवि आ जाए, तो हटाने की भी फिक्र न करें। छवि न आए, तो लाने की भी फिक्र न करें। आप तो सिर्फ लीन होने की, डूबने की फिक्र करें। मिटने की फिक्र करें।
जब आप एकाग्र करने की चेष्टा करते हैं, तो मन पर तनाव पड़ता है। तनाव बेचैनी पैदा करेगा। एकाग्र करने की चेष्टा ही मत करें । खोने की चेष्टा करें। जैसे बूंद सागर में डूब रही है, ऐसे आप विराट में डूब रहे हैं, निराकार में खो रहे हैं। जैसे दीए को कोई फूंककर बुझा दे और वह खो जाए शून्य में, ऐसे आप भी खो रहे हैं । लीन होने की चिंता करें, डूबने की चिंता करें, मिटने की चिंता करें। एकाग्र करने की चेष्टा मत करें, विसर्जित होने की, मेल्टिंग, जैसे बर्फ पिघल रही है।
एक खयाल कर लें, जैसे बर्फ हो गए आप और पिघल रहे हैं, और बहते जा रहे हैं, और नदी में लीन होते जा रहे हैं। पिघलने की, खोकी, डूबने की !
अगर आपके कीर्तन में यह भाव - दशा बनी रहे, धीरे-धीरे नृत्य गहन होने लगेगा, धीरे-धीरे आवाज प्रगाढ़ होने लगेगी। और धीरे-धीरे नृत्य के साथ आपके भीतर बहुत कुछ टूटने लगेगा, समाप्त होने लगेगा। वह जो अहंकार था, वह गिरने लगेगा। कोई क्या कहेगा! कोई क्या सोचेगा ! मैं क्या पागलपन कर रहा हूं! वह सब समाप्त होने लगेगा। धीरे- धीरे-धीरे आप भूल जाएंगे कि आप हैं, भूल जाएंगे कि जगत है । और जब यह विस्मरण का क्षण आ
किन समझ में आए कि मैं कौन हूं, न समझ में आए कि चारों तरफ कौन है, तो समझना कि यह स्मृति की शुरुआत हुई।
इस विस्मरण में, जगत की तरफ से इस विस्मरण में भीतर का स्मरण आना शुरू हो जाता है। जब जगत भूलने लगता है, तो परमात्मा याद आने लगता है। परमात्मा के याद आने का मतलब यह नहीं है कि कोई छवि याद आने लगती है। परमात्मा के याद आने का मतलब यह है कि वह जो जिसको विलियम जेम्स ने ओशनिक फीलिंग कहा है, समुद्र होने की भाव- दशा । बूंद होने का भाव नहीं, समुद्र होने का भाव आने लगता है।
फिर आप विराट हो जाते हैं । और फिर हवाएं चलती हैं, तो ऐसा नहीं कि आपके बाहर चल रही हैं, आपके भीतर चलती हैं। वृक्ष
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हिलते हैं, तो आपके बाहर नहीं, आपके भीतर हिलते हैं। चांद-तारे आपके भीतर चलते हैं। आपके आस-पास जो लोग नाच रहे हैं और कीर्तन कर रहे हैं, वे भी आपके बाहर नहीं रह जाते, आपके भीतर प्रवेश हो जाते हैं। आप फैलकर बड़े हो जाते हैं। और आपके भीतर सब होने लगता है।
छवि की बहुत फिक्र न करें। आ जाए, तो हटाने की भी चेष्टा मत करें। क्योंकि हटाने में भी फिर चेष्टा शुरू हो जाती है। आ जाए तो राजी, न आए तो राजी। अगर आप किसी छवि को प्रेम करते रहे हैं, तो वह आ जाएगी। अगर कृष्ण से आपका लगाव है, तो जब आप मस्त होंगे तो पहली घटना यही घटेगी कि कृष्ण आपको दिखाई पड़ने लगेंगे। अगर आपका क्राइस्ट से प्रेम है, तो आप मस्त होते से, पहली घटना, क्राइस्ट के पास आप पहुंच जाएंगे।
मजे से उनको रहने दें। उनको हटाने की भी कोई जरूरत नहीं है। लेकिन उन पर एकाग्र होने की भी कोई जरूरत नहीं है। धीरे-धीरे वे भी खो जाएंगे। और जब वे भी खो जाएंगे, तब निराकार प्रकट होता है। जहां राम भी खो जाते हैं, कृष्ण भी खो जाते हैं, बुद्ध भी, क्राइस्ट भी...। क्योंकि वे हमारे अंतिम पड़ाव हैं।
इसे ठीक से समझ लें।
जहां संसार समाप्त होता है, वहां खड़े हैं क्राइस्ट, बुद्ध, कृष्ण । उनकी प्रतिमाएं आखिरी तख्ती है, जहां संसार समाप्त होता है; वहां वे खड़े हैं। जब उनका भाव आता है, तो उसका अर्थ है कि अब हम किनारे आ गए। लेकिन उन तख्तियों को पकड़कर रुक नहीं जाना है। देखते रहना है, और आगे, और आगे, और आगे, जहां वे भी खो जाएंगे, वहां लीन हो जाना है। देखते-देखते, आनंद से, धीरे-धीरे सब छोड़ देना है।
यह छोड़ने की घटना शरीर को छोड़ने से शुरू होती है। कीर्तन की यही मौज और आनंद है कि आप शरीर को छोड़ दिए हैं।
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लोग मुझसे पूछते हैं कि कोई व्यवस्था होनी चाहिए। कोई ढंग नृत्य, कोई ताल, लय, यह सब व्यवस्था होनी चाहिए ! व्यवस्था से कीर्तन का कोई संबंध नहीं है। सच तो यह है कि कीर्तन व्यवस्था तोड़ने का एक उपाय है। कि आपके भीतर अब कोई व्यवस्था करने की चेष्टा नहीं है। आपने छोड़ दिया शरीर को, जैसा जो हो रहा है, आप होने दे रहे हैं। अब आप बीच-बीच में नहीं आ रहे हैं कि कैसा पैर उठाऊं, कैसा पैर न उठाऊं । अब जो हो रहा है, होने दे रहे हैं।
और यह छोड़ना शरीर का पहला अनुभव है विसर्जन का। फिर