Book Title: Gita Darshan Part 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 410
________________ गीता दर्शन भाग-5 हो सकती है। एक वृक्ष में हो सकती है। एक नदी में हो सकती है। एक व्यक्ति में हो सकती है। आपके बेटे की आंखों में हो सकती है। आपकी पत्नी की आंखों में हो सकती है। पत्थर में हो सकती है। आकार में, निराकार में, कहीं भी हो सकती है। जहां भी आप ऐसा क्षण खोज लें कि आपमें अब कोई दौड़ नहीं है मन की, मन ठहर गया है, जैसे धारा रुक गई हो और कोई गति नहीं है। इस क्षण में जो आनंदभाव उत्पन्न हो जाता है, और जो थिरक फैल जाती है; इस क्षण में जो पुलकित हो उठते हैं प्राण के कण-कण; भीतर तक, केंद्र तक, जो भनक सुनाई पड़ने लगती है अनंत के स्वर की, वह प्रार्थना है। इस प्रार्थना से भी नृत्य पैदा हो जाता है। क्योंकि जब प्राण आनंदित होते हैं, तो पैर भी नाचने लगते हैं। इस आनंद से स्वर भी फूट पड़ता है। जब भीतर की वीणा बजती है, तो गीत भी फूट पड़ता है। यहीं फर्क है। आप भी जाकर मंदिर में गीत गा सकते हैं मीरा का। लेकिन आप गा रहे हैं कुछ पाने लिए। मीरा ने भी गाया था। गाया था, कुछ भीतर मिल गया था, उसकी भनक शरीर तक दौड़ गई। मीरा नाचने लगी, गाने लगी। इस गाने और नाचने में प्रार्थना नहीं है। ये तो प्रार्थना के परिणाम हैं। यह तो प्रार्थना की बाइ-प्रोडक्ट है। यह तो जैसे गेहूं उगता है, उसके साथ भूसा भी उग आता है। जब भीतर प्रार्थना होती है, तो यह आनंद बाहर भी प्रकट होने लगता है। पर हम तो मीरा को बाहर से देखते हैं, तो हमें लगता है, मीरा गीत गा रही है, नाच रही है। शायद हम भी नाचें और गीत गाएं ऐसा ही, तो जो मीरा को भीतर हुआ, वह हमें भी हो जाए। यहीं तर्क की भूल हो जाती है । यहीं भूल हो जाती है। मीरा को जो भीतर हो रहा है, उसके कारण नृत्य पैदा हो रहा है। नृत्य के कारण भीतर कुछ होता होता, तो सभी नर्तकियां मीरा हो जातीं। और गीत के कारण अगर कुछ भीतर होता होता, तो सभी गायक कभी के वहां पहुंच गए होते। आप कितना अच्छा गा पाएंगे? कुशल गायक हैं; उनसे आप क्या जीत पाएंगे? कुशल नर्तक हैं; आप क्या नाच पाएंगे? नहीं; मीरा को जो हुआ है, यह गान में और नृत्य में तो उसकी प्रतिध्वनि भर सुनाई पड़ रही है। वह जो हुआ है, वह इसके बाहर है । इसलिए जरूरी नहीं है कि गान और नृत्य पैदा हो ही। क्योंकि महावीर को हमने नाचते नहीं देखा। बुद्ध को हमने गाते नहीं देखा। तो कोई ऐसा भी जरूरी नहीं है कि वह धुन बाहर इस भांति आए। 380 वह अनेक रूपों में आ सकती है, व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करेगी। बुद्ध के बाहर वह नाचकर नहीं आती। बुद्ध के बाहर वह प्रशांत, घनी शांति बनकर आती है। बुद्ध का व्यक्तित्व अलग है। भीतर तो वही घटता है, जो मीरा को घटता है। भीतर बुद्ध के भी वही घटता है। लेकिन मीरा स्त्री है। और मीरा के पैरों में जो है, वह बुद्ध के पैरों में नहीं है; और मीरा की वाणी में जो है, वह बुद्ध की वाणी में नहीं है। बुद्ध का व्यक्तित्व और है। तो वही घटना भीतर घटती है, लेकिन जिससे छनकर आती है, वह व्यक्तित्व अलग है। तो बुद्ध के बाहर वह प्रगाढ़ शांति हो जाती है । जिसने बुद्ध को देखा है, वह सोच ही नहीं सकता कि वह परम अनुभव नृत्य कैसे बनेगा ! क्योंकि बुद्ध को तो देखा है, तो वे बिलकुल शांत हो गए हैं। कुछ भी कंपन नहीं होता बाहर । पत्थर की मूर्ति हो गए। जिन्होंने मीरा को देखा है, वे भरोसा नहीं कर सकते कि शांत! इस तरह की शांत स्थिति कैसे बनेगी? क्योंकि मीरा को हमने बावली होते देखा, पागल होते देखा। उसका शरीर नृत्य से भर गया। ये व्यक्तियों के भेद हैं। लेकिन आप चाहें तो बुद्ध जैसे मूर्ति बनकर भी बैठ जा सकते हैं; तो भी भीतर की घटना नहीं घटेगी। क्योंकि भीतर की घटना प्राथमिक है; बाहर जो घटता है, वह गौण है। वह उसका परिणाम है । वह उसका फल है। बाहर से भीतर की तरफ जाने का कोई उपाय नहीं है। भीतर से ही बाहर की तरफ आने का उपाय है। प्रार्थना, ठहरा हुआ क्षण है मन का। वासना, भागता हुआ क्षण मन का । वासना है दौड़; प्रार्थना है ठहराव अगर आप विश्राम के क्षण में किसी वृक्ष के पास बैठ गए, तो वह वृक्ष आपके लिए थोड़ी देर में परमात्मा हो जाएगा। जहां भी हम विश्राम के क्षण में हो जाते हैं, वहीं परमात्मा प्रकट हो जाता है। एक और मित्र ने पूछा है कि आप कहते हैं, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, राम, ये भगवान थे। ये भगवान नहीं थे। क्योंकि भगवान तो निराकार है और ये सब तो साकार थे! तो हो सकता है, उनको भगवान की अनुभूति हुई हो, लेकिन वे भगवान नहीं थे । 'कार क्या है? किसे हम आकार कहते हैं? इस जगत आ

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