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गीता दर्शन भाग-5
कीर्तन की कला खो गई, क्योंकि हम अति बुद्धिमान हो गए हैं। यह बुद्धिमानों का काम नहीं है। यह बुद्धिमानों का काम नहीं है । जिन मित्र ने पूछा है, बुद्धिमान आदमी हैं। यह बुद्धिमानों का काम नहीं है। इसलिए वे कहते हैं, गीता के संबंध में कुछ नहीं पूछना है। क्योंकि गीता तो बुद्धिमानी खुद ही समझ लेगी । कीर्तन से अड़चन है।
यह बुद्धिमानों का काम नहीं है। बुद्धिमानी का काम संसार है। यहां तो बुद्धि छोड़कर, बुद्धि फेंककर कोई प्रवेश करता है। और ये जो मैं इतनी बातें आपसे बुद्धि की कर रहा हूं, सिर्फ इसी आशा में कि किसी दिन आप ऊब जाएंगे इस बुद्धि से। इसे छोड़कर, उतारकर, बाहर इसके निकलने की कोशिश करेंगे।
अगर बुद्धिमानी से इतनी बात भी समझ में आ जाए कि बुद्धि काफी नहीं है, तो बस, बुद्धि का काम पूरा हो गया। अगर बुद्धिमानी इतना समझा दे कि इसको छोड़कर पार जाना है, कहीं दूर, इससे हटना है, इसके बंधन और सीमाओं के पार, तो बुद्धिमानी का काम पूरा हो गया । बुद्धिमान आदमी हम उसको कहते हैं, जो बुद्धिमानी को छोड़ने की भी क्षमता रखता है।
यह कीर्तन तो बुद्धि को छोड़ने की बात है।
वह अर्जुन कह रहा है कि आज मैं समझ पाता हूं कि आपके प्रभाव से, आपके प्रभाव के कीर्तन से जगत हर्षित होता है, अनुराग भर जाता है । पर कोई हैं, जो घबड़ाते हैं, भागते हैं, भयभीत होते हैं । और देखता हूं कि सिद्धों के समुदाय भी कंपित आपको नमस्कार कर रहे हैं।
हे महात्मन्! ब्रह्मा के भी आदि कर्ता और सबसे बड़े आपके लिए वे कैसे नमस्कार न करें! क्योंकि हे अनंत, हे देवेश, हे जगन्निवास, जो सत असत और उनसे परे अक्षर अर्थात सच्चिदानंदघन ब्रह्म है, वह आप ही हैं।
और हे प्रभु, आप आदि देव और सनातन पुरुष हैं, और आप इस जगत के परम आश्रय और जानने वाले तथा जानने योग्य और परम धाम हैं । हे अनंत रूप, आपसे यह सब जगत व्याप्त और परिपूर्ण है। और आप वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चंद्रमा तथा प्रजा के स्वामी ब्रह्मा, ब्रह्मा के भी पिता हैं। आपके लिए हजारों हजारों बार नमस्कार। आपके लिए बार-बार नमस्कार । और अनंत सामर्थ्य वाले, आपके लिए आगे से, पीछे से, नमस्कार । हे सर्वात्मन्! आपके लिए सब ओर से नमस्कार होवे। क्योंकि अनंत पराक्रमशाली, आप, संसार को
बार,
सब तरफ
व्याप्त किए हुए हैं, इससे आप ही सर्वरूप हैं।
ये सारे वचन परमात्मा के प्रति एक धन्यभाव के वचन हैं, एक अहोभाव ।
अर्जुन भयभीत हुआ है, लेकिन धन्यभागी भी हुआ है। यह अनूठा, अद्वितीय अवसर उसे मिला है कि एक झलक उसे मिली | है विराट में, जहां सब सीमाएं टूट जाती हैं। जहां जानने वाला और जाना जाने वाला एक हो जाते हैं। और जहां सृष्टि और सृष्टि का निर्माता, वे भी पीछे छूट जाते हैं। और मूल आश्रय और परमधाम का अनुभव होता है।
वह धन्यभागी हुआ है। वह अपने धन्यभाग को प्रकट कर रहा है। उसकी वाणी बड़ी अजीब-सी लगेगी। वह कहता है, नमस्कार, बार-बार नमस्कार, हजार बार नमस्कार। आगे से नमस्कार, पीछे से नमस्कार। लगेगा, क्या कह रहा है यह! नमस्कार तो एक दफा कहने से भी काम चल जाएगा। लेकिन उसका मन नहीं भरता है। वह सब तरफ से नमस्कार कर रहा है, फिर भी उसे लगता है कि जो मुझे मिला है, उसका अनुग्रह मैं मान भी न पाऊंगा। उससे उऋण होने की तो कोई व्यवस्था नहीं है, उसका अनुग्रह भी न मान पाऊंगा।
कहा जाता है, कठिन है पिता के ऋण से मुक्त होना, कठिन है मां के ऋण से मुक्त होना। लेकिन असंभव नहीं। गुरु के ऋण से मुक्त होना असंभव है । और गुरु के ऋण से मुक्त होने का कोई
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उपाय नहीं है। क्योंकि जो अनुभव गुरु के माध्यम से उपलब्ध होता है, यह जो कृष्ण के माध्यम से अर्जुन को हुआ, अब इस अनुभव के लिए कोई भी तो मूल्य नहीं चुकाया जा सकता। कुछ भी नहीं दिया जा सकता। सच तो यह है कि देने वाला भी कहां बचा अब ? क्या दे ? अब जो भी दे, सब छोटा है, व्यर्थ है। सिर्फ नमस्कार रह जाता है, सिर्फ नमन रह जाता है।
गुरु का हमने जो इतना आदर किया है, वह किसी और कारण से नहीं। क्योंकि कुछ और करने का उपाय ही नहीं है। उसे हम कुछ | दे भी नहीं सकते। कुछ दें, तो व्यर्थ है। जो हम देंगे, वह संसार का कुछ हिस्सा होगा। और वह हमें संसार के पार ले गया। उस संसार के पार ले जाने वाले अनुभव के लिए संसार का कुछ भी दें, पूरा संसार भी दें, तो बेमानी है। अब हम क्या कर सकते हैं? सिर्फ एक अनुग्रह का भाव रह जाता है।
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इसलिए अर्जुन कह रहा है, नमस्कार, नमस्कार, हजार बार नमस्कार ! कई बहाने खोज रहा है कि आप देवों के देव, आप परमात्मा, आप ब्रह्मा के भी पिता!