________________
विराट से साक्षात की तैयारी
यह भी थोड़ा सोच लेने जैसा है कि क्या अर्जुन को अब कुछ करना नहीं है। कृष्ण कहते हैं, देख और अर्जुन देखना शुरू कर देगा! क्या हुआ होगा? यह बहुत बारीक है। और जो अध्यात्म में गहरे उतरते हैं, उन्हें समझ लेने जैसा है। या उतरना चाहते हैं कभी, इसे सम्हाल- सम्हालकर रख लेने जैसा है।
वह जो तीसरी आंख है, दो प्रकार से सक्रिय हो सकती है। या तो साधक चेष्टापूर्वक अपनी दोनों आंखों की ज्योति को भीतर खींच ले, आंख को बंद करके । वर्षों की लंबी साधना है, आंखों को निर्ज्योति करने की। क्योंकि आंख से हमारी जो चेतना बह रही है बाहर, उसे आंख बंद करके भीतर खींच लेने । इसको कबीर ने आंख को उलटा कर लेना कहा है। मतलब है कि धारा जो बाहर बह रही थी, वह भीतर बहने लगे।
आपने कृष्ण की प्रेयसी राधा का नाम सुना है। आपको खयाल न होगा, वह धारा का उलटा शब्द है। कृष्ण के समय के जो भी शास्त्र हैं, उनमें राधा का कोई उल्लेख नहीं है। राधा के नाम का भी कोई उल्लेख नहीं है। बहुत बाद में, बहुत बाद की किताबों में राधा का उल्लेख शुरू हुआ। जिन्होंने उल्लेख शुरू किया, वे बड़े होशियार लोग थे। उन्होंने एक प्रतीक में बड़ा रहस्य छिपाकर रखा। लेकिन लोगों ने फिर राधा की मूर्तियां बना लीं। और फिर लोग कृष्ण और राधा बनकर मंच पर रास-लीला करने लगे !
राधा एक यौगिक प्रक्रिया है । वह जो जीवन की धारा बाहर की तरफ बह रही है, जिस दिन उलटी हो जाती है, उस दिन उस धारा का नाम राधा हो जाता है। सिर्फ शब्द को उलटा कर लेने से।
T
वह जो आंख से हमारी जीवन-धारा बाहर जा रही है, जब भीतर आने लगती है, तो वह राधा हो जाती है। और भीतर हमारे छिपा है
मैंने कहा, कृष्ण, , साक्षी । वह साक्षी, जो हमारे भीतर छिपा है, जब हमारी जीवन-धारा उसकी राधा बन जाती है, उसके चारों तरफ नाचने लगती है, बाहर नहीं जाती; भीतर, और रास शुरू हो जाता है । उस रास की बात है।
और हम नौटंकी कर रहे हैं, मंच वगैरह सजाकर । ऊधम करने के बहुत उपाय हैं। उपद्रव करने के बहुत उपाय हैं। और आदमी हर जगह से उपद्रव खोज लेता है। और अपने को भरमा लेता है, और सोचता है, बात खतम हो गई।
राधा हमारी जीवन-धारा का नाम है, जब उलटी हो जाए, वापस लौटने लगे स्रोत की तरफ। अभी जा रही है बाहर की तरफ। जब जाने लगे भीतर की तरफ, अंतर्यात्रा पर हो जाए, तब, तब जो रास
भीतर घटित होता है, परम रास, वह जो परम जीवन का अनुभव और आनंद, वह जो एक्सटैसी है, वह जो नृत्य है भीतर, उसकी
बात है।
तो एक तो उपाय है कि हम चेष्टा से, श्रम से, योग से, तंत्र से, साधन से, विधि से, मैथड से, सारी जीवन चेतना को भीतर खींच लें। एक उपाय है साधक का, योगी का ।
एक दूसरा उपाय है भक्त का, समर्पित होने वाले का, कि वह समर्पण कर दे । जिस व्यक्ति की अंतर्धारा भीतर की तरफ दौड़ रही हो, उसको समर्पण कर दे।
तो जैसे अगर आप एक चुंबक के पास एक साधारण लोहे का | टुकड़ा रख दें, तो चुंबक की जो चुंबकीय धारा है, जो मैग्नेटिक फील्ड है, वह उस लोहे के टुकड़े को भी मैग्नेटाइज कर देता है, उस लोहे के टुकड़े को भी तत्काल चुंबक बना देता है। ठीक वैसे ही अगर कोई व्यक्ति उस व्यक्ति की तरफ अपने को पूरी तरह समर्पित कर दे, जिसकी धारा भीतर की तरफ जा रही है, तो तत्क्षण उसकी धारा भी उलटी होकर बहने लगती है।
अर्जुन ने न तो कोई साधना की अभी अभी साधना करने का उपाय भी नहीं। अभी तो यह चर्चा ही चलती थी। और अचानक अर्जुन ने कहा कि अगर आप समझें मुझे योग्य, समझें शक्य, अगर यह संभव हो, आपकी मर्जी हो, तो दिखा दें। और कृष्ण ने कहा, देख।
इन दोनों शब्दों के बीच में जो घटना घटी है, वह मैग्नेटाइजेशन | की है। वह अर्जुन का यह समर्पण भाव कि आप जो कहते हैं, वह ठीक ही है; मैं तैयार हूं; अब मेरा कोई विरोध नहीं, अब मेरा कोई असहयोग नहीं; अब मैं सहयोग के लिए राजी हूं; अब मेरी समग्र स्वीकृति है! कृष्ण ने कहा, देख |
इन दोनों के बीच जो घटना घटी, उसका कोई उल्लेख गीता में नहीं है, हो भी नहीं सकता। उसका क्या उल्लेख हो सकता है ! वह घटना यह घटी कि समर्पण के साथ ही, वह जो कृष्ण की भीतर बहती हुई धारा थी, अर्जुन की धारा उसके साथ भीतर की तरफ लौट पड़ी। कृष्ण खो गए और अर्जुन ने देखना शुरू कर दिया।
इस देखने की बात हम कल करेंगे।
261
लेकिन पांच मिनट उठेंगे नहीं। पांच मिनट कीर्तन करें। वह मेरा प्रसाद है। फिर जाएं। कोई भी उठेगा नहीं। अपनी जगह बैठकर ताली बजाएं। अपनी जगह बैठकर कीर्तन में सहयोगी हों, और फिर जाएं।