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अचुनाव अतिक्रमण है
कहता है आपके भीतर ? जो आपके भीतर बोलता है, यह अंतःकरण है।
यह अंतःकरण वास्तविक नहीं है। क्योंकि वास्तविक अंतःकरण भय के कारण नहीं जीता। वास्तविक अंतःकरण तो ज्ञान के कारण जीता है। यह अंतःकरण सोशल प्रोडक्ट है, समाज के द्वारा पैदा किया गया है। यह समाज बच्चा पैदा होते से ही बच्चे में अंतःकरण पैदा करने में लग जाता है। क्योंकि समाज को भय है कि अगर बच्चे को ऐसे ही छोड़ दिया जाए, तो वह पशु जैसा हो जाएगा।
और इस भय में सचाई है। अगर बच्चे को कुछ भी न कहा जाए, तो वह पशु जैसा हो जाएगा। तो समाज उसे बताना शुरू करता है। वह कहता है, अगर तुम ऐसा करोगे, तो दंड पाओगे। अगर तुम ऐसा करोगे, तो पुरस्कार पाओगे। अगर तुम ऐसा करोगे, तो माता-पिता प्रसन्न होंगे। अगर तुम ऐसा करोगे, तो दुखी होंगे, नाराज होंगे, कष्ट पाएंगे।
धीरे-धीरे हम बच्चे में भय और लोभ के आधार पर अंतःकरण पैदा करते हैं। हम कहते हैं, तुम ऐसा करो, मां प्रसन्न है, पिता प्रसन्न हैं, सब लोग प्रसन्न हैं तुमसे । तुम ऐसा करो, और सब लोग तुम्हारी निंदा करेंगे, और सब तुम्हें निंदित कर रहे हैं। तो बच्चे को धीरे-धीरे समझ में आने लगता है, किस चीज से डरे । तो जिस-जिस चीज से मां-बाप डराते हैं, उस-उस से वह डरने लगता है। भय गहरे में बैठ जाता है, अंतःकरण बन जाता है।
इसलिए हर समाज का अंतःकरण अलग-अलग होता है। हिंदू का अलग, मुसलमान का अलग, ईसाई का अलग, जैन का अलग। आत्मा अलग-अलग नहीं होती, अंतःकरण अलग-अलग होता है।
अब एक जैन है, वह मांसाहार नहीं कर सकता। क्योंकि बचपन से उसे कहा गया है कि यह महापाप है। तो अगर मांस सामने आ जाए, तो भीतर उसके हाथ-पैर कंपने लगेंगे। इसलिए नहीं कि मांस को देखकर कंपते हैं। क्योंकि दूसरा मुसलमान बैठा है, उसके नहीं कंप रहे हैं। तो मांस में कंपाने वाली कोई बात नहीं है। कंप रहे हैं अंतःकरण के कारण।
और इसी बच्चे को अगर एक मांसाहारी घर में रखा जाता, तो इसके भी नहीं कंपते । और अगर एक मांसाहारी बच्चे को गैर-मांसाहारी घर में रखा जाता, तो उसके भी कंपते। वह जो अंतःकरण बचपन से पैदा किया गया है, वह जो भय, 1 कि क्या गलत है, वह नहीं करना । उसे देखकर यह कंप रहा है । यह
वास्तविक अंतःकरण नहीं है । यह सामाजिक व्यवस्था है।
इसलिए एक समाज में अगर चचेरी बहन से शादी होती है, तो कोई अड़चन नहीं है । चचेरी बहन से शादी हो जाती है। किसी को कोई तकलीफ नहीं होती। और दूसरे समाज में उसी के पड़ोस में चचेरी बहन से शादी करने की बात ही महापाप हो सकती है। कोई सोच भी नहीं सकता कि बहन से भी, और प्रेम कर सकते हैं। संभव ही नहीं है । और उसको पत्नी बना सकते हैं, यह तो बिलकुल ही कल्पना के बाहर है। यह अंतःकरण है।
यह जब तक दुनिया में बहुत समाज हैं, बहुत संप्रदाय हैं, तब तक बहुत अंतःकरण होंगे। और इन अंतःकरण के कारण बड़ा | उपद्रव है । और दुनिया तब तक एक नहीं हो सकती, जब तक हम | कोई एक युनिवर्सल कांशिएंस पैदा न कर लें। तब तक दुनिया एक नहीं हो सकती। लाख लोग सिर पटकें कि हिंदू-मुसलमान भाई-भाई | लाख लोग सिर पटकें कि हिंदी चीनी भाई-भाई । यह असंभव है। क्योंकि भाई-भाई तब तक नहीं हो सकते, जब तक भीतर के अंतःकरण भिन्न-भिन्न हैं । तब तक सब ऊपरी होगा, थोथा, दिखावा। मौके पर सब कलई खुल जाएगी और दुश्मन बाहर निकल आएंगे। ऊपर से होगा, क्योंकि वह जो भीतर अंतःकरण बैठा है, वह भेद निर्मित कर रहा है।
अर्जुन कहता है, मेरे अंतःकरण के कारण मैं भयभीत हो रहा हूं, आपके कारण नहीं | और ठीक कह रहा है। यह उसका निरीक्षण बिलकुल उचित है। अंतःकरण ने आज तक उसके यही जाना है कि परमात्मा सौम्य है, सुंदर है, प्रीतिकर है, आनंदपूर्ण है, सच्चिदानंद है, आनंदघन है। अब तक उसने यही जाना है। मृत्यु भी परमात्मा है, यह उसने न सुना है, न जाना है।
इसलिए बचपन से बना हुआ अंतःकरण परमात्मा की एक | प्रतिमा लिए है, वह प्रतिमा खंडित हो रही है। इसलिए वह व्यथित है । और न केवल वह कहता है, मैं व्यथित हूं, सारे लोक व्य हैं। यह रूप बहुत घबड़ाने वाला है।
और हे भगवन्! आपके विकराल जाड़ों वाले और प्रलयकाल की अग्नि के समान प्रज्वलित मुखों को देखकर दिशाओं को नहीं जानता हूं और सुख को भी प्राप्त नहीं होता हूं।
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दिशा-भ्रांति हो गई है। अब मुझे पता नहीं कि उत्तर कहां है, दक्षिण कहां है, पूरब कहां है। वह यह कह रहा है कि अब मुझे कुछ | समझ में नहीं आ रहा है, मेरा सिर घूम रहा है। दिशाएं पहचान में | नहीं आतीं कि क्या क्या है ! यह तुम्हारा रूप देखकर दिशाएं भ्रांत