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गीता दर्शन भाग-5
हो गईं, मेरे पथ खो गए। मेरा मार्ग धुएं से भर गया। और जरा भी सुख को प्राप्त नहीं होता हूं। यह जो आपको देख रहा हूं- आप भगवान हैं! वह कह रहा है, आप भगवान हैं, आप परमेश्वर हैं, फिर भी आपका यह रूप देखकर जरा भी सुख को प्राप्त नहीं होता हूं | जरा भी मुझे, जरा भी सहारा सुख के लिए आपकी इस स्थिति को देखकर नहीं मिलता है।
इसलिए हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न होवें ।
वह यह कह रहा है कि आप कृपा करें और यह रूप तिरोहित कर लें। और वह जो प्रसन्नवदन, वह जो मुस्कुराता हुआ आनंदित रूप था, आप उसमें वापस लौट आएं।
आदमी का मन आखिर तक, अंत तक भी परमात्मा पर अपने को थोपना चाहता है। अंत तक भी, परमात्मा जैसा है, उसे वैसा ही स्वीकार कर लेने की तैयारी नहीं होती। अंत तक !
साधक की सबसे बड़ी कठिनाई यही है कि वह परमात्मा पर भी अपने को थोपता है । और तब तक सिद्ध नहीं हो पाता, जब तक परमात्मा जैसा भी हो, उसको वैसा ही स्वीकार कर लेने की स्थिति न आ जाए।
अभी अर्जुन थोड़ा-सा विनम्र निवेदन कर रहा है कि प्रसन्न हो जाएं। यह हटा लें। यह प्रज्वलित, प्रलयंकारी रूप अलग कर लें। होंठों पर थोड़ी मुस्कुराहट ले आएं। आपके चेहरे पर हंसी को देखकर, आनंद को देखकर मुझे सुख होगा। इसे खयाल में लें।
जब तक आप सोचते हैं कि परमात्मा ऐसा होना चाहिए, जब तक आपकी परमात्मा की कोई धारणा है, तब तक आप परमात्मा को नहीं जान पाएंगे। तब तक जो भी आप जानेंगे, वह परदा होगा। अगर आपको परमात्मा को ही जानना है, तो आपको अपनी सारी धारणा अलग कर देनी होगी, हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध, सब हटा देने होंगे। आपको निपट परमात्मा को शून्य की तरह जानने के लिए खड़ा हो जाना पड़ेगा। अपना अंतःकरण, अपने भरोसे, विश्वास, अपनी दृष्टि, सब हटा देनी होगी। और जैसा भी हो — विकराल हो, मृत्यु हो, अमृत हो, जो भी हो - उसके लिए राजी हो जाना होगा।
जब भी कोई व्यक्ति ऐसी स्थिति में राजी हो जाता है, तो परमात्मा के दोनों रूप खो जाते हैं - विकराल भी, सौम्य भी । और जिस दिन ये दोनों रूप खोते हैं, उस अनुभव को हमने ब्रह्म-अनुभव कहा है। जब तक ये रूप रहते हैं, तब तक हमने इसे
ईश्वर - अनुभव कहा है। इस फर्क को थोड़ा समझ लें।
यह ईश्वर का अनुभव है, जब तक ये दो रूप हमें दिखाई पड़ते हैं। जिस दिन ये दो रूप भी नहीं दिखाई पड़ते- दोनों में चुनाव नहीं रह जाता, उसी दिन दिखाई नहीं पड़ते-उस दिन जो रह जाता है, वह ब्रह्म है।
. भारत ने बड़ी साहस की बात कही है। भारत ने ईश्वर को भी माया का हिस्सा कहा है। यह सुनकर आपको कठिनाई होगी। भारत कहता है, ईश्वर भी माया का हिस्सा है। ईश्वर - अनुभव भी माया का हिस्सा है। ब्रह्मानुभव ! क्योंकि ईश्वर में भी रूप हैं। और ईश्वर के साथ भी हमारा लगाव है, अच्छा-बुरा; ऐसा हो, ऐसा न हो ।
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भक्त भगवान को निर्मित करते रहते हैं, सजाते रहते हैं। मंदिरों में ही नहीं; मंदिरों में तो वे सजाते ही हैं, क्योंकि भगवान बिलकुल अवश है, वहां वह कुछ कर नहीं सकता; जो करना चाहो, करो। लेकिन यह अर्जुन ठेठ भगवान के सामने खड़े होकर भी कह रहा है कि ऐसा अच्छा होगा, मुझे सुख मिलेगा। आप जरा प्रसन्न हो जाएं। यह रूप हटा लें, यह तिरोहित कर लें।
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ये क्या कह रहा है? ये यह कह रहा है कि अभी भी केंद्र मैं हूं । मेरा सुख! आप ऐसे हों, जिसमें मुझे सुख मिले। मैं ऐसा हो जाऊं, जिसमें आप आनंदित हों, ऐसा नहीं । मैं आनंदित होऊं, ऐसे आप हो जाएं। यह आखिरी राग है। और तब तक शेष रहता है, जब तक हम माया की आखिरी परिधि ईश्वर को पार नहीं कर लेते।
शंकर ने कहा है कि ईश्वर माया का हिस्सा है। इसलिए ईश्वर अनुभव को भी अंतिम अनुभव मत समझ लेना। यहीं कठिनाई खड़ी हो जाती है । ईसाइयत, इस्लाम, शंकर की बात से व्यथित हो जाते हैं। हिंदू, साधारण चित्त भी व्यथित हो जाता है। क्योंकि ईश्वर हमारे लिए लगता है आखिरी । भारत की मनीषा के लिए ईश्वर भी आखिरी नहीं है। आखिरी तो वह स्थिति है, जहां कहने को इतना भी शेष नहीं रह जाता कि आनंद है, कि दुख है, कि मृत्यु है, कि जीवन है । सब भेद गिर जाते हैं। सारी रेखाएं खो जाती हैं।
कहता है अर्जुन, हे जगन्निवास ! आप प्रसन्न होवें । और मैं देखता हूं कि वे सब ही धृतराष्ट्र के पुत्र, राजाओं के समुदाय आपमें प्रवेश करते हैं। और भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य तथा कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योद्धाओं के सहित सबके सब वेगयुक्त हुए | आपके विकराल जाड़ों वाले भयानक मुखों में प्रवेश करते हैं और | कई एक चूर्ण हुए सिरों सहित आपके दांतों के बीच में लगे हुए दिखते हैं।