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गीता दर्शन भाग-500
परमात्मा मेरे बाबत क्या सोचता है? केंद्र तू ही है। अभी परमात्मा शायद श्वास को तो हम रोक भी सकते हैं थोड़ी देर, प्रेम को परिधि है, अभी केंद्र नहीं हुआ। इतनी-सी वासना भी बाधा है। । हम रोक भी नहीं सकते। शायद श्वास को हम बाहर भी जोर से
समर्पण तो वही कर पाएगा, जिसको संसार में कुछ अर्थ नहीं | फेंक सकते हैं, लेकिन प्रेम को हम जोर से फेंक भी नहीं सकते। रहा। शायद अर्जुन इस घड़ी में आ गया है कि अब उसे कुछ अर्थ | | हम प्रेम के साथ कुछ भी नहीं कर सकते। इसलिए प्रेमी एकदम नहीं रहा है। उसे कुछ दिखाई नहीं पड़ता। वह सारा युद्धस्थल, वे | असहाय हो जाता है, हेल्पलेस हो जाता है। उसे लगता है, मैं कुछ सारे लोग, सब खो गए, स्वप्न हो गए। वह कहता है, मैं सब भी नहीं कर सकता। कुछ मुझसे बड़ी शक्ति ने मुझे पकड़ लिया। छोड़ने को राजी हूं। अब मुझे, अगर आप चाहते हों, और शक्य इसलिए प्रेमी हमें पागल मालूम पड़ने लगता है। क्यों? क्योंकि हो और उचित मानें, तो मुझे दिखा दें।
वह सारा कंट्रोल, सारा नियंत्रण खो देता है। अब वह कुछ कर नहीं इस समर्पण की घड़ी में कृष्ण ने कहा कि मैं तुझे दिव्य अलौकिक सकता। कुछ और उसमें हो रहा है, जिसमें उसे बहना ही पड़ेगा। चक्षु देता हूं।
अब किसी बड़ी धारा ने उसे पकड़ लिया, जिसमें कुछ करने का क्यों कहा, देता हूं? भाषा की मजबूरी है। भाषा में सब तरफ द्वंद्व उपाय नहीं है। तैर भी नहीं सकता। है। इसलिए भाषा में जो भी कहा जाए, वह द्वैत हो जाता है। अगर । इसलिए जो समझदार हैं, तथाकथित समझदारं, वे प्रेम से बचते कृष्ण ऐसी भाषा बोलें, जिसमें द्वैत न हो, तो अर्जुन की समझ में हैं। नहीं तो कंट्रोल खो जाता है, नियंत्रण खो जाता है। समझदार नहीं आएगा। अभी तो नहीं आएगा, अभी दिव्य-चक्षु तो मिला नहीं पैसे की फिक्र करते हैं, प्रेम की नहीं, क्योंकि पैसे पर नियंत्रण हो है। अभी तो भाषा लेने-देने की बोलनी पड़ेगी। हम भी भाषा में जब | | सकता है; लिया-दिया जा सकता है; तिजोड़ी में रखा जा सकता किसी ऐसे अनुभव को रखते हैं, जो भाषा के पार है, तो अड़चन | | है; जरूरत हो वैसा उपयोग किया जा सकता है। प्रेम आपसे बड़ा आनी शुरू होती है।
साबित होता है। आप किसी को कहते हैं कि मैं तुम्हें प्रेम देता हूं। पर आपने कभी | ध्यान रहे, प्रेम प्रेमी से बड़ा साबित होता है। प्रेमी छोटा पड़ स्तगाल किया कि क्या दिया जाता है या आप चाहते तो क्या जाता है और प्रेम बड़ा हो जाता है। और प्रेमी एक तफान. एक देने से रोक सकते थे? प्रेम होता है, दिया नहीं जा सकता। या फिर | अंधड़ में फंस जाता है। कोई बड़ी ताकत, उससे बड़ी ताकत उसे कोशिश करके देखें किसी को प्रेम देकर! कि चलो, इसको कोशिश | चलाने लगती है। इसलिए वह निरवश हो जाता है, अवश हो जाता करें; प्रयास, अभ्यास करें; प्राणायाम साधे; और प्रेम दें। तब आप | है, असहाय हो जाता है। पाएंगे कि कुछ नहीं हो रहा है। कुछ हो ही नहीं रहा है। प्रेम की कोई | फिर भी प्रेमी भाषा में कहता है कि मैं प्रेम देता हूं। ऊर्जा प्रकट नहीं होती। कोई किरण नहीं जगती। कोई धुन पैदा नहीं | ठीक ऐसे ही कृष्ण ने कहा है कि मैं तुझे दिव्य-चक्षु देता हूं। होती। कुछ नहीं होता।
कृष्ण चाहते भी, और अर्जुन का समर्पण पूरा होता, तो दिव्य-चक्षु आप नकल कर सकते हैं; अभिनय कर सकते हैं। लेकिन प्रेम | | देने से रुक नहीं सकते थे। यह खयाल में ले लें। चाहते भी, तो भी नहीं दिया जा सकता। प्रेम होता है। लेकिन फिर भी हम भाषा में दिव्य-चक्षु देने से रोका नहीं जा सकता था। कृष्ण का होना पास कहते हैं कि प्रेम देता हूं। वह देना गलत है। मगर भाषा में ठीक है। और अर्जुन का समर्पण, दिव्य-चक्षु घटता ही। यह वैसे ही घटता, भाषा में कोई अड़चन नहीं है। क्योंकि सारी भाषा लेने-देने पर जैसे पानी नीचे की तरफ बहता है। ऐसे ही परमात्मा भी अर्जुन की निर्मित है। और प्रेम दोनों के बाहर है।
| तरफ बहता ही, इसमें कोई उपाय नहीं है। इसलिए जीसस ने कहा कि प्रेम ही परमात्मा है। और किसी लेकिन जरा अजीब-सा लगता कि कृष्ण कहते कि अब कारण से नहीं। इसलिए नहीं कि परमात्मा बहुत प्रेमी है। सिर्फ दिव्य-चक्षु तुझमें घटित हो रहा है। वह अर्जुन की समझ के बाहर इसीलिए कि मनुष्य के अनुभव में प्रेम एक अद्वैत का अनुभव है। होता। हैपनिंग! देना नहीं है वह, एक घटना है। उससे समझ में आ जाए शायद, कि जैसा प्रेमी को कठिन हो जाता। लेकिन भाषा हमेशा ही अद्वैत को द्वैत में तोड़ देती है। और जहां है कहना कि देता हूं। होता है। जैसे श्वास चलती है, ऐसा प्रेम दो हो जाते हैं, वहां लेना-देना हो जाता है। चलता है।
इसलिए प्रेम को दिया-लिया नहीं जा सकता, क्योंकि वहां दो
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