________________
गीता दर्शन भाग-5
ये चार दिन बीते ! आप जाएंगे।
वह स्त्री बुद्धिमान है। मेरे चार दिन वहां रहने से आनंदित नहीं हो पाती। वे चार दिन भी दुख के ही कारण हैं। क्योंकि बुद्धि सिर्फ दुख को ही खोजती है। अगर वह निर्बुद्धि हो सके, तो हालत उलटी हो जाएगी। जब मैं उसके घर रहूंगा, तब वह आनंदित होगी, नाचेगी कि मैं उसके घर हूं। और जब मैं वर्षभर उसके घर नहीं रहूंगा, तब वह आनंद से प्रतीक्षा करेगी कि अब मैं आता हूं। लेकिन उसके लिए निर्बुद्धि होना पड़े। बुद्धिमान यह काम नहीं कर सकता। बुद्धि की तलाश ही अभाव की तलाश है, अस्तित्व की तलाश नहीं है।
अर्जुन की बुद्धि गिरी होगी, तो वह आश्चर्य से भर गया । उसका रो-रोआं हर्ष से कंपित होने लगा। रोआं- रोआं !
ध्यान रहे, जब अनुभव घटित होता है, तो वह सिर्फ आत्मा में ही नहीं होता; वह शरीर के रोएं रोएं तक फैल जाता है। इसलिए आत्मिक अनुभव में शरीर समाविष्ट है।
आप यह मत सोचना कि आत्मिक अनुभव कोई भूत-प्रेत जैसा अनुभव है, जिसमें शरीर का कोई समावेश नहीं होता। और आप यह भी मत सोचना कि शरीर के जो अनुभव हैं, वे सभी अनात्मिक हैं। शरीर का अनुभव भी इतना गहरा जा सकता है कि आत्मिक हो जाए। । और आत्मिक अनुभव भी इतने बाहर तक आ सकता है कि शरीर का रो-रो पुलकित हो जाए। और दोनों तरफ से यात्रा हो सकती है। आप अपने शरीर के अनुभव को भी इतना गहरा कर ले सकते हैं कि शरीर की सीमा के पार आत्मा की सीमा में प्रवेश हो जाए।
योग, शरीर से शुरू करता है और भीतर की तरफ ले जाता है। भक्ति, भीतर की तरफ से शुरू करती है और बाहर की तरफ ले जाती है। बाहर और भीतर दो चीजों के नाम नहीं हैं, एक ही चीज के दो छोर हैं। इसलिए जो भी घटित होता है, वह पूरे प्राणों में स्पंदित होता है। ईश्वर का अनुभव भी रोएं - रोएं तक स्पंदित होता है।
स्वामी राम अमेरिका से लौटे, तो वे राम का जप करते रहते थे। सरदार पूर्णसिंह उनके एक भक्त थे और उनके साथ रहते थे। एक रात सरदार पूर्णसिंह ने अचानक अंधेरी रात में राम, राम, राम की आवाज सुनी। पहाड़ी पर थे दोनों, एक छोटे-से झोपड़े में, एक ही कमरा था। कोई और तो था नहीं। स्वामी राम सोए थे।
सरदार उठे। दीया जलाया। कौन आ गया यहां ? राम सोए हुए हैं । पूर्णसिंह बाहर गए, झोपड़ी का पूरा चक्कर लगा आए । कोई
भी नहीं; लेकिन आवाज आ रही है। बाहर जाकर अनुभव में आया कि आवाज तो कमरे के भीतर से ही आ रही है; बाहर से नहीं आ रही है। भीतर आए। राम सो रहे हैं वहां ; और कोई है नहीं। राम के पास गए। जैसे-जैसे पास गए, आवाज बढ़ने लगी। राम के हाथ और पैरों के पास कान लगाकर सुना, राम की आवाज आ रही है।
घबड़ा गए! क्या हो रहा है? जगाया राम को, कि यह क्या हो रहा है ? तो राम ने कहा, आज जप पूरा हुआ। जब तक रोआं-रोआं जप न करने लगे, तब तक अधूरा है। आज राम मेरे शरीर तक में प्रवेश | कर गए। आज रोआं- रोआं भी बोलने लगा और कंपित होने लगा।
:
जब परम अनुभव घटित होता है, तो रोएं - रोएं तक व्याप्त हो जाता है। शरीर भी पवित्र हो जाता है आत्मा के अनुभव में। और जब तक शरीर भी पवित्र न हो जाए आत्मा के अनुभव में, समझना अनुभव अधूरा है। जब तक शरीर भी पवित्र न हो जाए, तब तक समझना अधूरा है।
यह संजय कह रहा है कि रोआं- रोआं हर्षित हो गया अर्जुन का । विश्वरूप परमात्मा को श्रद्धा-भक्ति सहित सिर से प्रणाम करके, हाथ जोड़े हुए बोला।
इसमें फिर भाषा की कठिनाई है। ऐसे क्षण में हाथ जोड़ने नहीं पड़ते, जुड़ जाते हैं। यह कोई अर्जुन ने हाथ जोड़े होंगे, ऐसा नहीं; जैसा आप जोड़ते हैं कि चलो, गुरुजी आ रहे हैं, हाथ जोड़ो। न जोड़ेंगे, तो बुरा मान जाएंगे। और फिर कर्तव्य भी है। और फिर संस्कार भी है। और हाथ जोड़ने से अपना बिगड़ेगा भी क्या ! कुछ मिलता होगा, तो मिल ही जाएगा। तो जोड़ लो।
आपके हाथ जोड़ने में भी व्यवसाय है, और चेष्टा है। आप न | जोड़ें, तो हाथ जुड़ेंगे नहीं। आपको जोड़ना पड़ते हैं। अर्जुन को उस क्षण में जोड़ने पड़े नहीं होंगे, जुड़ गए होंगे। कुछ उपाय ही न रहा होगा। हाथ जुड़ गए होंगे। सिर झुक गया होगा।
इसलिए मैं कहता हूं कि भाषा की भूल है। संजय समझा रहा है; भाषा की तकलीफ है। उसको कहना पड़ रहा है कि अर्जुन ने हाथ जोड़े, श्रद्धा-भक्ति से भरकर सिर झुकाया ।
नहीं, न तो हाथ जोड़े, न श्रद्धा-भक्ति से भरकर सिर झुकाया। | श्रद्धा-भक्ति से भर गया। यह घटना है। इसमें कोई श्रम नहीं है। | आप भी श्रद्धा-भक्ति से भरते हैं। भरने का मतलब होता है कि | आप चेष्टा करते हैं कि श्रद्धा-भक्ति से भरो। मंदिर में जाते हैं; श्रद्धा-भक्ति से भरकर सिर झुकाते हैं । सब झूठा होता है। सब अभिनय होता है। नहीं तो कोई श्रद्धा-भक्ति से अपने को चेष्टा से
290