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धर्म है आश्चर्य की खोज
कैसे भर सकता है? या तो भीतर से बहती हो; और न बहती हो, तो कैसे भरिएगा? अभिनय कर सकते हैं, एक्ट कर सकते हैं।
देखें मंदिर में खड़े आदमी को । और उसी आदमी को मंदिर के बाहर सीढ़ियों से उतरते हुए देखें। और उसी आदमी को दुकान पर बैठे हुए देखें। आप पाएंगे, ये तीन आदमी हैं। यह एक ही आदमी मालूम नहीं पड़ता। यही आदमी मंदिर में हाथ - सिर झुकाकर खड़ा था, कैसी श्रद्धा-भक्ति से भरा हुआ ! लेकिन यह श्रद्धा-भक्ति को मंदिर में ही छोड़ आता है। और मंदिर में केवल वही श्रद्धा-भक्ति छोड़ी जा सकती है, जो रही ही न हो। जो रही हो, तो छोड़ी नहीं जा सकती। वह साथ ही आ जाएगी। श्रद्धा-भक्ति कोई जूते की तरह नहीं है, कि उतार दिया, पहन लिया ! प्राण है।
अर्जुन को इस क्षण में जब इतना आश्चर्य का अनुभव हुआ और जब इतने प्रकाश से भर गया, आच्छादित हो गया, तो श्रद्धा-भक्ति र नहीं पड़ी हो गई।
इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि गुरु वह नहीं है, जिसको आपको प्रणाम करना पड़े। गुरु वह है, जिसके सान्निध्य में प्रणाम हो जाए। आपको करना पड़े, तो कोई मूल्य नहीं है; हो जाए। अचानक आप पाएं कि आप प्रणाम कर रहे हैं। अचानक आप पाएं कि आप झुक गए हैं।
मैं एक विश्वविद्यालय में था । तो वहां शिक्षकों की तो सारे मुल्क में, सारी दुनिया में एक ही चिंता है कि विद्यार्थी कोई आदर नहीं | देते; अनुशासन नहीं है। तो उस विश्वविद्यालय के सारे शिक्षकों ने एक समिति बुलाई थी विचार के लिए। भूल से मुझे भी बुला लिया।
वे भारी चिंता में पड़े थे कि अनुशासन नहीं है। कोई आदर नहीं . करता है। श्रद्धा खो गई है। और गुरु का आदर, तो हमारे देश में तो कम से कम होना ही चाहिए।
तो मैंने उनसे पूछा कि मुझे एक व्याख्या पहले साफ-साफ समझा दें। | गुरु को आदर देना चाहिए, ऐसा अगर आप मानते हैं, तो इसका अर्थ यह हुआ कि आदर देने के लिए विद्यार्थी स्वतंत्र है। दे, तो दे। न दे, तो न दे। और अगर आप ऐसा मानते हैं कि गुरु है ही वही जिसको आदर दिया जाता है, तो विद्यार्थी स्वतंत्र नहीं रह जाता। मेरी दृष्टि में तो गुरु वही है, जिसे आदर दिया जाता है। अगर विद्यार्थी आदर न दे रहे हों, तो बजाय इस चिंता में पड़ने के कि विद्यार्थी कैसे आदर दें, हमें इस चिंता में पड़ना चाहिए कि गुरु हैं या नहीं हैं ! गुरु खो गए हैं।
गुरु हो, और आदर न मिले, यह असंभव है। आदर न मिले,
तो यही संभव है कि गुरु वहां मौजूद नहीं है। गुरु का अर्थ ही यह है कि जिसके पास जाकर श्रद्धा-भक्ति पैदा हो। जिसके पास जाकर लगे कि झुक जाओ। जिसके पास झुकना आनंद हो जाए। जिसके पास झुककर लगे कि भर गए। जिसके पास झुककर लगे कि कुछ पा लिया। कहीं कोई हृदय के भीतर तक स्पंदित हो गई कोई लहर ।
अर्जुन झुक गया। श्रद्धा-भक्ति उसने अनुभव की । हाथ उसके जुड़ गए। सिर उसका झुक गया। और बोला, हे देव! आपके शरीर में संपूर्ण देवों को तथा अनेक भूतों के समुदायों को और कमल के आसन पर बैठे हुए ब्रह्मा को, महादेव को और संपूर्ण ऋषियों को तथा दिव्य सर्पों देखता हूं। और हे संपूर्ण विश्व के स्वामिन्, | आपके अनेक हाथ, पेट, मुख और नेत्रों से युक्त तथा सब ओर से अनंत रूपों वाला देखता हूं। और हे विश्वरूप, आपके न अंत को | देखता हूं, न मध्य को और न आदि को देखता हूं। और मैं आपका | मुकुटयुक्त, गदायुक्त तथा सब ओर से प्रकाशमान तेज का पुंज, | प्रज्वलित अग्नि और सूर्य के सदृश ज्योतियुक्त, देखने में अति गहन और अप्रमेय स्वरूप सब ओर से देखता हूं।
अर्जुन जो कह रहा है, वह बिलकुल अस्तव्यस्त हो गया है। ये जो वचन हैं उसके, जैसे होश में कहे हुए नहीं हैं। जैसे कोई बेहोश "हो, जैसे कोई शराब पी ले, मदहोश हो जाए और फिर कुछ कहे। और उसकी वाणी में सब अस्तव्यस्त हो जाए। और वह जो कहना चाहे, न कह सके। और जो कहे, उससे पूरी अभिव्यक्ति न हो।
उस साधारण शराब में ऐसा हो जाता है, जिससे हम परिचित हैं। और जिस शराब में अर्जुन इस क्षण में डूब गया होगा, जिस हर्षोन्माद में, जिस एक्सटैसी में, वहां होश खो गया मालूम पड़ता है । वह जो कह रहा है, वह ऐसा है, जैसे छोटा बच्चा कहता चला जाता है। और फिर अनुभव करता है कि जो मैं कह रहा हूं, जो मैं देख रहा हूं, उसमें संगति नहीं है, तो बदल भी देता है।
वह कहता है कि देखता हूं समस्त देवों को, समस्त भूतों को, कमल पर बैठे हुए ब्रह्मा को, महादेव को ... ।
बड़ी
अनुभूतियां हैं। ब्रह्मा और महादेव दो छोर हैं। ब्रह्मा का है, जिसने किया सृजन । और महादेव का अर्थ है, जो करता है विध्वंस । अर्जुन यह कह रहा है कि साथ-साथ देखता हूं, ब्रह्मा को, महादेव को ! उसने जिसने जगत को बनाया, देखता हूं आपके भीतर। वह जो जगत को मिटाता है, उसको भी देखता हूं आपके भीतर। प्रारंभ सृष्टि का, अंत; जन्म, मृत्यु; साथ-साथ | देखता हूं । सारी शक्तियां, सारी दिव्य शक्तियां दिखाई पड़ रही हैं।
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