Book Title: Gita Darshan Part 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

View full book text
Previous | Next

Page 338
________________ गीता दर्शन भाग-5 साजिश है। ये दोनों एक साथ जुड़े हैं। अब तक हमने विपरीत समझा था। हमने सोचा था, मृत्यु जो है, वह जन्म के खिलाफ है। और हमने चाहा था कि मृत्यु को रोक दें, ताकि जगत में जन्म ही जन्म रह जाए। लेकिन हमें पता नहीं है कि हम जो सोचते हैं, वह हो नहीं सकता, क्योंकि व्यवस्था अस्तित्व की हमारे खयाल में नहीं है। जिस दिन जन्म हुआ, मौत हो गई। जन्म के साथ ही मरना शुरू हो गया। आप कल मरेंगे, लेकिन मरने का काम आपको जीवनभर करना पड़ेगा, तब तो मरेंगे। एकदम से कैसे मरेंगे ! इस जगत में कुछ एकदम से नहीं घटता । प्रक्रिया है, सीढ़ी-सीढ़ी चढ़ेंगे और मरेंगे। तो जन्म पहला कदम है की तरफ। अगर जन्म पहला कदम मौत की तरफ, तो जो देखता है उसको दिखाई पड़ेगा, मौत फिर पहला कदम है नए जन्म की तरफ। हम मरते आदमी को देखते हैं कि मर गया, क्योंकि हमें आगे कुछ दिखाई नहीं पड़ता। हमें लगता है कि बस, एक खाई के किनारे जाकर एक आदमी गिर गया, खतम हो गया। क्योंकि हमें आगे दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन जहां मौत घट रही है, तत्क्षण उससे जुड़ा हुआ जन्म घट रहा है। क्योंकि इस जगत में कुछ भी मिट नहीं सकता। मिटने का कोई उपाय ही नहीं है। वैज्ञानिक कहते हैं, रेत के एक छोटे-से कण को भी नष्ट नहीं किया जा सकता। इस जगत में जितना है, जो है, वह उतना ही है, उतना ही रहेगा। न हम उसमें कुछ जोड़ सकते हैं, न कुछ घटा सकते हैं। तो फिर एक आदमी मरता है, मर कैसे सकेगा? कुछ मिटता नहीं है, तो यह आदमी कैसे मिट सकेगा? यह केवल हमारी नजर ओझल हुआ जा रहा है। जहां तक हम देख सकते हैं, वहां तक दिखाई पड़ रहा है; उसके पार हम नहीं देख सकते। यह किसी नए डायमेंशन में, किसी नए आयाम में प्रवेश कर रहा है, जहां हमें दिखाई नहीं पड़ता । जैसे एक जहाज जाता है पानी में दिखाई पड़ता है, दिखाई पड़ता है, दिखाई पड़ता है । फिर फीका होता जाता है, फीका होता जाता है। फिर अचानक तिरोहित हो जाता है। क्योंकि जमीन गोल है । जैसे ही जमीन की उस गोलाई को जहाज पार कर लेता है, जिसके पार गोलाई उसको छुपाने का कारण बन जाएगी, हमारी आंख से ओझल हो जाता है, गया! मृत्यु भी एक वर्तुल, एक गोलाकार घटना है। जन्म और मृत्यु 308 तक आधा वर्तुल पूरा होता है। फिर मृत्यु से जन्म तक आधा वर्तुल पूरा होता है । मृत्यु के किनारे जाकर एक चेतना उस ओझल होते जहाज की तरह आगे निकल जाती है, जहां तक हम देखते हैं उस सीमा के आगे। हम कहते हैं, आदमी मर गया। शरीर गिरकर हमारे पास रह जाता है, चेतना नए जन्म की यात्रा पर निकल जाती है। जब अर्जुन ने देखा होगा कि जन्म और मौत एक ही वर्तुल के हिस्से हैं, सुंदर - कुरूप एक ही वर्तुल के हिस्से हैं, मित्र - शत्रु एक ही बात है, तो अलौकिक लगा होगा ! क्योंकि लोक में ऐसा अनुभव नहीं होता। और भयंकर भी लगा कि यह क्या है सब ! घबड़ाने वाला भी लगा । और यह देखकर कि सारा जगत इसमें फंसा हुआ है, वह कहने लगा, और हे गोविंद ! वे देवताओं के समूह आप में ही प्रवेश कर रहे हैं और कई एक भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए आपके नाम और गुणों का उच्चारण कर रहे हैं। देवता भयभीत होकर, हाथ जोड़े हुए, आपके ही नाम और गुणों की स्तुति कर रहे हैं! यह थोड़ा विचारें । मनसविद, समाजशास्त्री कहते हैं कि धर्म का जन्म भय से हुआ है। उनके कारण दूसरे हैं। वे कहते हैं, आदमी डरता रहा है प्रकृति की शक्तियों से । और डर की वजह से उन्हें फुसलाने के लिए हाथ जोड़कर प्रार्थना करता रहा है। आकाश में बादल गरजते हैं, अगर आप गुफा में रहते रहे होंगे कभी, तो घबड़ा गए होंगे। प्रकृति की विराट शक्तियां हैं, विध्वंस कर सकती हैं। क्षण में पहाड़ गिर जाते हैं, लोग दबकर नष्ट हो जाते हैं। भूकंप होता है, लोग विनष्ट हो जाते हैं, खो जाते हैं। गर्जना होती है बिजली की, कुछ समझ नहीं आता। तूफान आते हैं, बाढ़ आती है, और कुछ आदमी कर नहीं सकता। विज्ञानविद कहते हैं कि आदमी उस भय की स्थिति में एक ही बात सोच सका, और वह यह था कि यह जो इतनी भयभीत करने वाली शक्तियां हैं, इनसे प्रार्थना की जाए, इन्हें परसुएड, फुसलाया जाए कि नाराज मत होओ। वह यही सोच सका कि नाराज हो गई है नदी, इसलिए हाथ जोड़कर प्रार्थना करो। नाराज हो गए हैं बादल इसलिए पानी नहीं गिर रहा है। हाथ जोड़कर प्रार्थना करो। कुछ पूजा करो, स्तुति करो, महिमा गाओ। वैज्ञानिक कहते हैं, इसी भय से धर्म का जन्म हुआ है। थोड़ी दूर तक उनकी बात सच है, लेकिन बहुत ज्यादा दूर तक नहीं है। बहुत ज्यादा दूर तक नहीं है। थोड़ी दूर तक इसलिए सच है कि जरूर भय

Loading...

Page Navigation
1 ... 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478