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ॐ दिव्य-चक्षु की पूर्व-भूमिका -
भी दिखाई पड़ सकता है। इसे थोड़ा समझ लें, यह जरा उलटा है। अभी एक जर्मन युवती मेरे पास आई। वह लौटती थी सिक्किम
कृष्ण का परमात्मा होना और न होना विचारणीय नहीं है। हों, न | | से। वहां एक तिब्बेतन आश्रम में साधना करती थी छः महीने से। हों। कोई तय भी नहीं कर सकता। कोई रास्ता भी नहीं है, कोई परख | मैंने उससे पूछा कि वहां क्या साधना तू कर रही थी? उसने कहा, की विधि भी नहीं है। लेकिन जो कृष्ण को परमात्मा मान पाता है, छः महीने तक तो अभी मुझे सिर्फ नमस्कार करना ही सिखाया जा उसके लिए समर्पण आसान हो जाता है। और जिसके लिए समर्पण |
| रहा है। सिर्फ नमस्कार करना। इसमें छः महीने कैसे व्यतीत हए आसान हो जाता है, उसे पत्थर में भी परमात्मा दिखाई पड़ जाएगा। | होंगे? उसने कहा कि दिनभर करना पड़ता था। जो भी—दो सौ कृष्ण तो पत्थर नहीं हैं, उनमें तो दिखाई पड़ ही जाएगा। भिक्षु हैं उस आश्रम में जो भी भिक्षु दिखाई पड़े, तत्क्षण लेटकर
अगर परमात्मा भी आपके सामने मौजूद हो और आप परमात्मा साष्टांग नमस्कार करना। दिन में ऐसा हजार दफे भी हो जाता; न मान पाएं, तो समर्पण न कर सकेंगे। समर्पण न कर सकें, तो कभी दो हजार दफे भी हो जाता। बस, इतनी ही साधना थी अभी, सिर्फ पदार्थ दिखाई पड़ेगा, परमात्मा दिखाई नहीं पड़ सकता। | उसने कहा। समर्पण आपका द्वार खोल देता है।
मैंने पूछा, तुझे हुआ क्या? उसने कहा, अदभुत हो गया है। मैं कृष्ण ने अर्जुन को आंख दी, यह सिर्फ उसी अर्थ में, जैसा हूं, इसका मुझे खयाल ही मिटता गया है। एक नमस्कार का सहज कैटेलिटिक एजेंट का अर्थ होता है, उनकी मौजूदगी से। कृष्ण ने दे | | भाव भीतर रह गया। और पहले तो यह देखकर नमस्कार करती थी नहीं दी, नहीं तो वे पहले ही दे देते। इतनी देर, इतना उपद्रव, इतनी कि जो कर रही हूं जिसको नमस्कार, वह नमस्कार के योग्य है या चर्चा करने की क्या जरूरत थी? इतना युद्ध को विलंब करवाने की | नहीं। अब तो कोई भी हो, सिर्फ निमित्त है; नमस्कार कर लेना है। क्या जरूरत थी? अगर कृष्ण ही आंख दे सकते थे बिना अर्जुन की | | और अब बड़ा मजा आ रहा है। अब तो जो आश्रम में भिक्षु भी नहीं किसी तैयारी के, तो यह आंख पहले ही दे देनी थी। इतना समय | हैं, जिनको नमस्कार करने की कोई व्यवस्था नहीं है, उनको भी मैं क्यों व्यर्थ खोया?
| नमस्कार कर रही हूं। और कभी-कभी आश्रम के बाहर चली जाती नहीं। जब तक अर्जुन समर्पित न हो, यह आंख नहीं अर्जुन को हूं, वृक्षों और चट्टानों को भी नमस्कार करती हूं। आ सकती थी। समर्पित हो, तो आ सकती है। लेकिन अगर कृष्ण । अब यह बात गौण है कि किसको नमस्कार की जा रही है, अब मौजूद न हों, तो भी बहुत कठिनाई है इसके आने में। | यही महत्वपूर्ण है कि नमस्कार परम आनंद से भर जाती है। क्योंकि
बहुत बार ऐसा हुआ है कि निकट मौजूद न हो दिव्य व्यक्ति, तो | नमस्कार अहंकार का विरोध है। झुक जाना अहंकार की मौत है। लोग आखिरी किनारे से भी वापस लौट आए हैं। क्योंकि | जो नहीं झुक पाता, वह कितना ही पवित्र हो जाए, शुद्ध हो जाए,
कैटेलिटिक एजेंट नहीं मिल पाता। अनेक बार लोग उस घड़ी तक | चरित्र, आचरण सब अर्जित कर ले, ब्रह्मचर्य फलित हो जाए, . पहुंच जाते हैं, जहां समर्पित हो सकते थे, लेकिन कहां समर्पित हों, अहिंसक हो जाए, सत्यवादी हो जाए, लेकिन न झुक पाए, तो भी वह कोई दिखाई नहीं पड़ता।
आंख नहीं खुलेगी। अब उसकी यह सारी पवित्रता भी उसका तो यदि उनकी कल्पना प्रखर और सजनात्मक हो, अगर वे बड़े अहंकार बन जाएगी। अब यह भी उसका दंभ होगा। बलशाली चैतन्य के व्यक्ति हों और भावना गहन और प्रगाढ़ हो, __ और इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि चरित्रवान, तथाकथित तो वे उस व्यक्ति को निर्मित कर लेंगे, जिसके प्रति समर्पित हो | चरित्रवान, चरित्रहीनों से भी ज्यादा अहंकारी हो जाते हैं। और सकें। और नहीं तो वापस लौट आएंगे। बहुत-से आध्यात्मिक | अहंकार से बड़ा उपद्रव नहीं है। अच्छा आदमी अक्सर अहंकारी साधक भी समर्पित नहीं हो पाते हैं, और तब अधूरे में लटके त्रिशंकु | | हो जाता है, क्योंकि सोचता है, मैं अच्छा हूं। की भांति रह जाते हैं।
___ इसलिए कभी-कभी ऐसा होता है कि पापी परमात्मा के पास गुरु का उपयोग यही है कि वह मौका बन जाए। मूर्ति का भी | जल्दी पहुंच जाते हैं, बजाय साधुओं के। इसका यह मतलब नहीं कि उपयोग यही है कि वह मौका बन जाए। मंदिर का, तीर्थ का भी | | आप पापी हो जाना। इसका यह मतलब भी नहीं कि आप साधु मत उपयोग यही है कि वहां मौका बन जाए। आपको आसानी हो जाए | होना। इसका कुल मतलब इतना है कि साधु के साथ भी अहंकार कि आप अपने सिर को झुका दें, लेट जाएं, खो जाएं। | हो, तो रोकेगा; और पापी के साथ भी अहंकार न हो, तो पहुंचा देगा।
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